जमीं अपनी है | Poetry of Dr. Kaushal Kishore Srivastava
जमीं अपनी है
( Zamee apni hai )
पार कर कांटो को कली फूल बनी है ।
तपिश मिट्टी की ही तो हीरे की कनी है ।।
राह में कांटे बिछे और दूर है मंजिल ।
राह और मंजिल में बेहद तना तनी है ।।
झुग्गियां कीचड़ की तुमको खटकती क्यों हैं ?
तुम्हारी ये नजर ही कीचड़ से सनी है ।।
कौन ये आवाज देता है नहीं मालुम ?
याद की दरिया के ऊपर धुंध घनी है ।।
गजल सुनकर आपकी अच्छा लगा हमकों ।
हो महल अपना नहीं पर जमीं अपनी है ।।
लेखक : : डॉ.कौशल किशोर श्रीवास्तव
171 नोनिया करबल, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
अति सूंदर रचना