नहाने लगी | Kavita nahane lagi
नहाने लगी
( Nahane lagi )
दोपहर ओहदे पे जो आने लगी ।
धूप भी अपने तेवर दिखाने लगी ।।
एक भोंरें को छू के चमेली खिली ।
दूसरी अपनी पेंगे बड़ाने लगी ।।
छू के चन्दा की किरणें कुमुदनी हसीं ।
और अमिसार में जगमगाने लगी ।।
रात रानी से टकरा के ठंडी हवा ।
गन्ध उसकी लिये डगमगाने लगी ।।
चांद ऊपर से निगरानी करने लगा ।
चांदनी झील में जो नहाने लगी ।।
जाम साकी ने धोके से जो चख लिया ।
देखा सबने की मैं गुनगुनाने लगी ।।
लेखक : : डॉ.कौशल किशोर श्रीवास्तव
171 नोनिया करबल, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
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