निबंध : पर्यावरण बनाम विकास | Essay in Hindi on environment vs development
निबंध : पर्यावरण बनाम विकास
( Essay in Hindi on environment vs development )
पर्यावरण और विकास को अक्सर अलग-अलग और एक दूसरे का विरोधी समझा जाता है। लेकिन अगर इन दोनों को साथ लाए बिना वर्तमान पर्यावरण और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना होगा तो काफी कठिन स्थिति बन जाएगी।
अक्सर बहुत कम बार ऐसा देखने को मिलता है जब विकासात्मक परियोजनाओं को पारित करने से पहले उनके संभावित पर्यावरण अपराधियों पर विशेष संवेदनशीलता के साथ विचार किया जाता है।
बदलती दुनिया के साथ आज कई महत्वपूर्ण चुनौतियां सामने हैं, जिसमें पर्यावरणीय संकट सबसे महत्वपूर्ण है। मानवीय अस्तित्व ने पर्यावरण को संकट में डाल दिया है। मौजूदा विकास की गति और स्वरूप ने पर्यावरण ही संसाधनों के ऊपर दबाव बना दिया है।
पर्यावरण संकट और अनिश्चितता को देखते हुए दुनिया भर में जिस प्रकार से प्रयास किया जा रहा है। उसमें ईमानदारी और समस्या की जड़ में जाने का अभाव दिख रहा है। दुनिया के तमाम देश अपने हितों से ऊपर उठकर पर्यावरण के प्रति गंभीर चिंता नहीं दिखा रहे हैं।
कोपनहेगन की विफलता विकसित देशों द्वारा कार्बन उत्सर्जन के प्रति अड़ियल रवैया इसका सीधा सबूत है। दुनिया के विकास की गति ने जिस रफ्तार से पर्यावरण को क्षति पहुंचाई है। उसकी भरपाई की जानीचाहिए।
उद्योग धंधों का विस्तार पर्यावरणीय संसाधनों पर आधारित है। विकास के इस मॉडल की वजह से इस दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। धरती इतनी गर्म है कि ग्लेशियर और ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघल रही है। नए औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों को काट दिया जाता था।
लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। विज्ञान और तकनीक ने इंसानियत को बेहतर बनाने तथा विकास के लिए जो ताना-बाना बुना उसका सबसे बुरा प्रभाव प्रकृति पर ही पड़ा है।
सूचना तकनीक के इस दौर का प्रभाव दुनिया भर में ई कचरे का ढेर बना हुआ है यह भी पर्यावरण को प्रदूषित करेगा। पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सीमित हैं।
ऐसे में बढ़ती हुई जनसंख्या और उसके साथ बढ़ रहे उपभोक्ता, चिंताजनक है। पृथ्वी ऐसा पात्र है जिसमें से हम निकाल तो सकते हैं लेकिन उसमें डाल कुछ भी नहीं सकते हैं।
ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन होने से यह समाप्त होने के कगार पर है। विकसित देशों और विकासशील देशों में इस बात की बहस होती है कि जनसंख्या और उपभोक्ता दर के बीच में है।
सतत विकास जिस संगठित सिद्धांत की तरफ इशारा करता है वह समाज और अर्थव्यवस्था को अपनी सेवाएं प्रदान करने के लिए प्राकृतिक और परिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने पर बल देता है।
ऐसी व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण को प्रोत्साहित करता है जहां प्राकृतिक संसाधनों की अखंडता और स्थिरता को प्रभावित किए बिना मानवीय आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
सतत विकास के पथ ऐसे विकास से है जिसके अंतर्गत वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आने वाली पीढ़ी की जरूरतों से समझौता नहीं किया जाता।
शहरी नियोजन के विकास की योजना बनाते समय यदि पर्यावरण पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जाए तो विकास के दौरान होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
शहरी क्षेत्र में औद्योगिक परियोजनाओं को विकसित करें साथ ही आर्थिक समृद्धि के साथ स्वस्थ पर्यावरण पर भी विचार करना जरूरी है। विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों में आज पानी की अनावश्यक बर्बादी देखने को मिल जाती है।
ऐसे में निर्माण कार्य को पुनः जल का उपयोग करके स्वयं को बर्बाद होने से रोका जा सकता है। इससे पर्यावरण को मजबूती मिलेगी। भारत में कई बार लालफीताशाही और नियामक प्राधिकार वालों की बहुतया के कारण भी विकास और पर्यावरण को के बीच विरोधाभास बन जाता है।
विकास को ध्यान में रखकर अन्य पहलुओं को अनदेखा कर दिया जाता है। इस तरह की परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान करने से पहले पर्यावरण के सभी पक्षों को ध्यान में रखना चाहिए।
जिससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान से बचाया जा सके। विकास और पर्यावरण को एक साथ लाने के लिए सबसे जरूरी है नीति निर्धारकों की इच्छा शक्ति। इच्छाशक्ति के अभाव से परियोजना बिना पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के पारित कर दी जाती है।
जबकि मौजूद लागत की तुलना में पर्यावरण को उपेक्षित करना दीर्घकालीन दृष्टिकोण से उचित नहीं है। बढ़ते शहरीकरण में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और अन्य जरूरतों के विस्तारीकरण के लिए बाध्य किया है। इन बढ़ती जरूरतों और समृद्ध की आकांक्षा ने निश्चित रूप से कई प्रकार की चुनौतियां उत्पन्न की है।
इसमें सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन स्थापित करना है। जिससे सरकारी नीतियों का प्रभावी अनुपालन सरकारी एजेंसियों का संयोजक पर्यावरण संरक्षण की भावना और तकनीक का तार्किक इस्तेमाल कर के इस लक्ष्य को सफलतापूर्वक हासिल किया जा सकता है।