प्रकृति
( Prakriti )
इस प्रकृति की छटा है न्यारी,
कहीं बंजर भू कहीं खिलती क्यारी,
कल कल बहती नदियां देखो,
कहीं आग उगलती अति कारी।
रूप अनोखा इस धरणी का,
नीली चादर ओढ़े अम्बर,
खलिहानों में लहलाती फसलें,
पर्वत का ताज़ पहना हो सर पर।
झरनों के रूप में छलकता यौवन,
स्वर्णिम आभा करे अरुण श्रृंगार,
ऋतुएं छलकाती मादक मुस्कान,
यही है इस प्रकृति का स्वछंद सार।
निश्छल प्रेम ममतामयी कहलाती,
बिन मांगे अनमोल ख़ज़ाने लुटाती,
दिन भर रवि किरणें तम हर लेती,
शशि तारिक़ा शीतल रजनी कर देती।
भूमिगत जल की धारा प्यास बुझाती,
रिमझिम बारिश की बूंदे जीवन उपजाती,
प्राणदायिनी हवा के झौंकें चलाकर,
जीवन यापन साधन हमें उपलब्ध कराती।
कहीं पर पुष्प वादियाँ बसाकर,
कहीं पर बर्फीली चादर बिछाती,
ऊँची नीची डगर बना कर,
स्वयं अवलोकन से हमें चेताती।
आओ करें सदुपयोग इस धरोहर का
प्रकृति को हो हम पर नाज़
मानव उदंड कृत्यों को त्यागें
करें नहीं कभी प्रकृति को नज़रअंदाज़।
बी सोनी
( आविष्कारक )