Mohan

विषय सूची

अरमान

हर ख़्वाहिश हो मुकम्मल जरूरी तो नहीं
कुछ अधूरे अफसाने भी अच्छे होते हैं
सुना है रूह कभी मरती नही
हिफाज़त के कुछ जज़्बात भी अच्छे होते हैं

ताउम्र की यादें भी तो
देती होंगी सुकून कब्रग़ाह में
हो सकती है मुलाकात फिर कभी
हिज्र के पनाहगाह में

माना तू मुकद्दर में नहीं अभी
कयामत भी नहीं आख़िरी में अभी
रहेगी रूह धड़कती तेरे आने तक
हमे तो काफी है तस्वीर ही अभी

चाहता हूँ फ़कत एक वादा तुझसे
दूर होकर भी न रहना दूर मुझसे
मिल जाने दे रूह के संग अपने मुझे
सिवा और नहीं कुछ है मन्नत तुझसे

तू ही है बुनियाद साँसों की अब
तेरे ख्वाब में ही सजते हैं ख़्वाब मेरे
फ़ना तो हो जानी है दुनियां ही इक रोज़
तुझपर ही निसार हैं अब अरमान मेरे

निज अस्तित्व

अंत भी होता विलीन अनंत में
अनंत से हि सृजन का प्रारंभ है
नश्वर होकर भी नश्वर कुछ नहीं
यहाँ हर पल हि होता आरंभ है

कर्म से हि खुलता सृजन का द्वार है
सृजन से हि प्रारब्ध का संसार है
ठहरती नहीं कालचक्र की गति कभी
स्वयं आपके द्वारा हि आपका उद्धार है

सहयोग में है समस्त संसार आपके
आपके भविष्य में मूल कर्म हि आपके
संगत में हि निर्भर है राह जीवन की
शिल्पकार हैं आप हि अपने जीवन के

आप हि प्रथम बूंद हो इस सागर की
सागर से ही बनी तुम प्रथम बूंद भी हो
न तुम अलग, न है अलग तुमसे कुछ भी
मूल भी तुम्ही,अंत भी अपने तुम्ही हो

भुला निज शक्ति जहाँ से मांग रहा क्यों
पाल मन मे खार, सुख ढूंढता है क्यों
त्याग द्वेष इर्ष्या, प्रेम हृदय मे भर के देख
होगी जीत तेरी, मिलेगा न सम्मान क्यों

चुनाव

कुछ बातों को जुबा पर लाना नही होता
समय से पहले कहना सही नही होता

बदलते हुए मौसम के प्रवाह की धारा है
कैसे कहें कब कौन किसका सहारा है

लोगों की मेघ सी बदलती हुयी आकृतियाँ हैं
गर्ज को देखकर हि बदलती हुयी प्रवृत्तियाँ हैं

तेल और तेल की धार देखकर चलिए
अंधों का शहर है, रास्ता देखकर चलिये

गूंगे बोलते हैं, लंगड़ों की दौड़ चलती है
बटन का कमाल है, नोटों की होड़ चलती है

जीने की तमन्ना मे शस्त्र भी उठाना होगा
कृष्ण की परंपरा में अर्जुन को सिखाना होगा

रास्ते के मुकाम को तो आपको हि चुनना होगा
मिलेगा वरदान भी, श्राप भी भोगना होगा

सम्मान योग्य

सम्मान योग्य को ही, दें उचित सम्मान
अन्यथा वह आपका हि, रहे घटाता मान

भाषा की मधुरता मे, चलते तीखे बाण
होता नहीं सहन हिय, निकले मानो प्राण

समझ नहीं निज धर्म की, धरे ज्ञान अभिमान
अहम चढाये शीश पर, रहे न और का ध्यान

मर्यादा लाँघकर, करे जो कटु प्रहार सी बात
चार कदम की दूरी रहे, निभे न उनसे साथ

निज आपा खोयकर, लोभ न रखिये कोय
कर्म दिलाये ताज तुम्हे, जग बैरी जो होय

गर्व रहे निज धर्म पर, चलो नित सत्य की राह
क्या रखा झूंठे दंभ मे, मिले बहुत ही वाह!

शिक्षक गुरु नहीं

अति आवश्यक है कि
शिक्षक का आदर सम्मान हो
वे हि तो आधार हैं जीवन पथ के
मार्गदर्शक, सफलता की मंजिल

तब भी उन्हें गुरुत्व का स्थान
आज नहीं दिया जा सकता
गुरु और शिक्षक भिन्न हैं
एक मार्गी होते हुए भी

शिक्षा के इस व्यवसायिक युग में
शिक्षक भी दे रहा मात्र
जीवीकोपार्जन की जानकारी
भूल हि गया संस्कारों का ज्ञान वह भी

संस्कारहीन व्यक्ति जी सकता है केवल
भविष्य का आधार और
मानवीयमुल्यों का अनुसरण नहीं कर सकता
बिना आत्मिक ज्ञान भटकाव हि जन्म लेता है

बिकाऊ शिक्षा की पद्धति में
शिक्षक की नीति भी जब केवल
धनोपार्जन हि रह गया हो तब वह भी
सम्मान पात्र भले हो, किंतु
गुरुतुल्य पूज्यनीय भी है, यह कैसे कहें

आमंत्रण

क्यों बंट रहे हो भाई आपस में तुम
कर लोगे हासिल क्या अलग रहकर
लहराता था ध्वज जहाँ विश्व भर
रह गये हो शेष वहीं अब मुट्ठीभर

पुरातत्व की खोज में अपना सनातन
मिलता है हर किसी के घर आँगन
तब भी पतित हिंदुत्व का देश कहाँ
निजता के गर्व में खंडित कर का कंगन

अर्धनिन्द्रा में होता नहीं उत्थान कभी
भरोसे और के मिलता नहीं सम्मान कभी
निज बाहुबल से हि किले फतह होते हैं
सुप्त चेतना में कल ख़्वाब की तरह होते हैं

होता है आज से ही सदा निर्माण कल का
कल के विश्वास पर सिर्फ पश्चाताप होता है
धिकारेंगी भविष्य की पीढियाँ जब तुम्हे
होकर मृत स्वयं, तुम हि करोगे मृत उन्हें

न आये वक्त वही फिर कौरव के काल का
करना पड़े वरण, उन्हें भी मृत्यु के गाल का
अभी है वक्त, जगा लो अपनी सुप्त चेतना को
कर रहे क्यो आमंत्रित विरह की वेदना को

अस्मत अपनी

अब अति आवश्यक हो गया है कि
हर रचनाकार केवल कला हि न् दिखाये
बल्कि अपनी उकेरी हुयी कला को भी
अपने जीवन में उतारकर हि सामने आये

बहुत हो चुकी हैं अबतक उपदेश की बातें
रह गये हैं वैसे ही कभी दिन तो कभी रातें
बातों हि बातों में बस घूमती रह जाती हैं बातें
बदलता कुछ नहीं बस होती हैं बातें हि बातें

चढ़ा हो नकाब खुद के हि चेहरे पर जब
तब और को बेपरदा क्या कर पायेगा कोई
जगा सकेगा और की आत्मा को कैसे कोई
उसकी ही आत्मा जब अबतक हो सोई हुयी

बुझा न सका जो अपने हि घर की आग को
दौड़ रहा है वही बुझाने जलते हुए शहर को
बढ़ा नहीं अन्याय कभी बढ़ते गुनाहगारों से
फला फूला है वह समझदारों की खामोशी से

आ गया है वक्त अब जगा लो चेतना अपनी
मिट जाओगे,जो समझे न कथनी और करनी
हर बार न आयेंगे आज़ाद भगत या कृष्ण तुम्हे
बचानी होगी अब तुम्हे खुद ही अस्मत अपनी

मूल कारण

मानसिक बदलाव
हमारे कहने या आपके पढ़ने से नहीं
आपके समझने और अपनाने से होगा

ज्ञान किताबों का चाट् जाते हैं दीमक
किंतु वे ज्ञानी नहीं बनते
आप हि जाने नहीं धन और समय का मूल्य
भूल गए जब सुन समझकर भी

वक्ता, लेखक, उपदेशक
करते हैं सिर्फ कर्म अपना
जीते मरते हैं आपके लिए
आपने समझ लिया व्यवसायी उन्हें
समझ स्विकारेंगे तब कैसे

तर्क से तर्क ही होंगे पैदा
बनकर सूप सार लेना होगा
गर्द उनकी छोड़ दो उनके हिस्से
आपको तो अपने हिस्से की लेना होगा

पल पल है अनमोल
आपका आभास आपको हि नहीं जब
तब असंभव है समझना अन्य का मूल्य
यही वो मूल है जो मिटा न सका तम
जगत से अज्ञानता का

समय की धरा पर

बदरंग हुए भाव मन के
छिन गयी कर्म की उज्ज्वलता हमसे
घर कर गई सोच मे मलिनता
विमुख होते रहे हम धर्म से

मरती रही मानवता पल पल हृदय की
बढ़ती रही भूख तम मे विलय की
आभास मे रही प्रकाश की आभा फैली
होती रही परिणाम मे चादर मैली

अंकुरित वासना वृक्ष बनती गई
बेल लोभ वैभव द्वेष इर्ष्या की बढ़ती गई
दृष्टि में चाहत रही आकाश की
पर कदम की दिशा रही पाताल की

समय की धरा पर खार हम बिछा रहे
कैसे होगा चमन हरा हम कहाँ जा रहे
कलियों मे मधुरस जब हम भर हि न पाए
गुलशन में पुष्प जब हम उगा हि न पाए

है वक्त अब भी यदि जगा लें चेतना को
मुश्किल नही कि मिटा न पाएँ वेदना को
समझ लें यदि असत्य के परिणाम को हम
दुर्गम नहीं कि छू न लें व्योम को हम

मानसिक बेड़ियाँ

चाहते हि नहीं हो तुम
कैद से बाहर निकलना
और का देकर हवाला
खुद गुलाम हुए बैठे हो

टूटती नहीं मानसिक बेड़ियाँ
जकड़ लेती हैं समझ को
सोच को मिलता हि नहीं विस्तार
कोल्हू के बैल की तरह

एक हि बन जाए आधार जब
घूम कर आते हैं हर बार वहीं
दिखता है सत्य बस वहीं
वही बन जाती है दुनियाँ अपनी

विफल हो जाते हैं हर प्रयास
समझना ही न चाहे जब व्यक्ति
स्वयं को ही मान ले जो सत्य
काम आती नहीं कोई शक्ति

इतिहास में होता है वर्तमान
भविष्य तो बनाना होता है
अतीत को ही समझ ले जो जीवन
व्यर्थ उसे कुछ भी बताना होता है

जटिलता

जरूरी नहीं कि दरार के लिए
आये आंधी या तूफ़ान हि कोई
गलतफहमी नासमझी भी काफी है
कई प्रश्न खड़े करने के लिए

जरूरी नहीं कि आपके जितना ही
कोई समझ सके आपको भी
आप हि नहीं समझ पाए उसे
तो इसमें गलती तुम्हारी है

समंदर की हर लहर से
कभी मोती नहीं बन पाती
लेकिन लहरों के प्रयास से हि
मोती भी बन पाती है

महत्व कद्र के अनुसार दें.
चाहत सीमा के भीतर तक हि रखें
लगाव की अधिकता मे लोग
अक्सर स्वार्थी समझ बैठते हैं

आज भी हावी है रुढ़ि वादिता
मान्यताओं की कट्टर वादिता
सरलता स्वीकार हि नहीं बहुतों को
बांध रखी है उन्हें उन्हीं की जटिलता

कृष्ण जन्म दिन

आ तो गए कृष्ण तिथि रूप में
किंतु, उनकी उपस्थिति को
करना होगा धारण
स्वयं की आत्म चेतना मे….

बनाना होगा सबल स्वयं को
बनना होगा सारथी स्वयं को हि
हर अन्यायके विरोध में
युद्ध महाभारत जैसा ही है

दुशासन् की दुष्टता का हनन कर्ता
हर किसी को होना होगा
कृष्ण हि क्यों हर बार करें अंत
मानवीय अत्याचार का

पुरुष वही पुरुषार्थ हो जिसमें
कर न सके रक्षा जो उसकी
अधिकार नहीं तब उसे
पत्नी माँ बहन बेटी कहे किसी को

गुनाह करना ही नहीं केवल
देखना, सुनना, सहना भी
आते हैं गुनाह की परिधि में
यही है वक्त उपयुक्त
बसा लो कृष्ण को अंतर्मन मे

कायदा

मत होने दो कम रोशनी अपनी
अंधेरों की जाल बहुत बड़ी है
बिछा रखे हैं दाने शिकारियों ने
जब से तुझ पर उनकी नज़र पड़ी है

कलम दिखा सकती है सिर्फ आईना
देखने की समझ तो आपकी होगी
इतिहास के पन्नों में रहता है बहुत कुछ
उसे परखने की परख आपकी होगी

समझें या न समझें वहशी दरिंदे
सत्य को तुम्हे भी तो समझना होगा
बिना चिंगारी के आग भड़कती कहाँ है
तुम्हे भी तो बिना घी के चमकना होगा

रहोगे हवाओं में यदि बहते हुए
तो गिर जाना भी स्वभाविक है हवन मे
बन जाओगी समिधा तुम भी तब
जरूरी है नज़रों की समझ जीवन में

दोषी मे भी दोष किया जाता है पैदा
दोषी को हि दोष देने से क्या फायदा
देखना होगा खुद भी तुम्हे स्वयं को
लांछन लगाने का भी होता है कोई कायदा

आ गया है वक्त

निकल गया है वक्त अब
समझने और समझाने का
हो रहे अत्याचार पर अब
आ गया है वक्त खंजर् उठाने का

किस काम की ऐसी मित्रता
जहाँ हो रहा हो चीरहरण
निभा चुके रिश्ते भाईचारे के
अब होंगे कलम सर हत्यारे के

हर घर से निकलेगी मशाल जब
तब हि होगी रक्षा अस्मत की
दोषी का कोई वर्ण, समूह नहीं होता
गलत संग किसी से कोई मोह नहीं होता

इतिहास दोहराया भी जाता है
उसे जगाया भी जाता है
उदाहरण तो होते हैं उदाहरण ही
उनको जीवन में अपनाया भी जाता है

मत ढूंढो सहारा और के कंधे का
जगाओ खुद के आत्म सम्मान को
चीख रही हर बेटी बनकर अबला
अपने जैसे ही समझो हर के अपमान को

मत बांधना राखी

मानता हूँ कि राखी बंधन का पर्व
प्रतिक है भाई बहन के अटुट् प्रेम का
तब भी बेटी, मत बांधना उस भाई को
जिसकी नज़रों मे यह केवल मान्यता है

मत बांधना, जो दे बदले मे पैसा
और उतार फेंके दूसरे हि दिन
सोचकर कि बीत गया दिन
अब हर दिन है रोज की तरह

यह मत भूलना कि बेटी तुम केवल
बहन हि नही हो भाई की अपने
और के बहनों की तुम बहन हो
कहीं माँ तो कहीं बेटी भी हो

आजमा लेना पहले भाई की नज़रों को
परख लेना उसकी नीयत को
क्या उसी की और वही तुम्हारा है कोई सहेली भी तो होगी, बहन जैसे

मत होने देना तार तार इस बंधन को
समझना मूल्य तुम भी विश्वास का
परखना तुम भी अपने के चरित्र को
बेटी, मत बांधना दुशासन के हाथ मे राखी

बहुत हुयी बातें

बहुत हुयीं बातें भाई चारे की
अब अस्त्र उठाओ
और कर दो सर कलम हत्यारे की

हिंदू चीनी भाई भाई
गंगा जमुनी तहजीब की बातें
मत देखो जात, धर्म, वर्ण किसी का
चौराहे पर हो फांसी बलात्कारी की

बेटी बहन हो या माँ भाभी
वहशी को दिखते हैं एक सभी
हो चुकी बहुत न्याय की बातें
करो न प्रतिक्षा अदालती न्याय की

पाकर पद सब भरे हुए हैं
जमीर से सब मरे हुए हैं
केवल कुर्शी अपनी बची रहे
इसी सोच मे सब पड़े हुए हैं

करनी होगी रक्षा खुद अपनी
मर रही हों जब बेटियां अपनी
यही समय है जागो अब तो तुम
खोकर पौरुष नपुंसक से क्यों हो तुम

अब तक बाहर का यह अत्याचार है
नज़रों में कल आपका ही द्वार है
डर मे कब तक सांसे ले पाओगे
इंसान हि हैं तुम जैसे अत्याचारी भी
बढ़कर दिखलाओ साथ तुम्हारी

बहन की शर्त

राखी बान्धुगी मै भईया, पर शर्त मेरी है एक
और की बहना भी मुझ जैसी, खाओ कसम नेक

लाज किसी की ना जाये, जिसमे हो तुम्हारा हाथ
बची रहे अस्मत उसकी, उसमे तुम्हारा हो साथ

रक्षक बनकर रहना भैया, सौगंध तुम्हे धागे की
रहे सदा हृदय कोमल,मंशा भी यही हो आगे की

हाल न हो किसी बहन का, दिल्ली कलकत्ता जैसे
अश्त्र उठा लेना तुम भी चाहे परशु राम के जैसे

अन्याय सहन कर लेना भी , कलंक लगा देगा
बंधवानी है राखी यदि तो, वचन याद दिला देगा

कोई भी हो भाई, इज्जत सबकी प्यारी होती है
खोकर अपनी लाज को नारी, जीवन भर रोती है

पुण्य भले यह मत करना, पर पाप का भागी मत होना
पोछ सको गर ना आंसू, पर उसका भागीदार न होना

प्रकाश की धरा पर

सूख रही डाली प्रकाश की धरा पर
पनप रही हरियाली अंधेरों के द्वार से

चली थी लेकर प्रण आजीवन रोग मुक्ति का
मरी मौमिता नर पिशाचों के अत्याचार से

कोलकाता, दिल्ली हो या शहर कहीं का भी
हर बेटी आहत होती हरदम होते व्यभिचार से

करना होगा न्याय , समाज के हर परिवार से
उस घर की भी होगी पीड़ित नजरों के वार से

हरकोई उत्तरदायी, घेरे मे क्यों हो शासन ही
अनदेखी करनेवाले कैसे बरी हैं गुनहगार से

चेतोगे कब जब घर में ही हाहाकार मचेगा
हर नारी कह रही, डूबमरो पुरुषों शर्मशार से

किस पर लिखूँ

कहा गया है की अपने सबसे करीब पर लिखूँ
लिखूँ किसपर ,व्यक्ति या नसीब पर लिखूँ

रिश्ते तो रहे हैं पहचान भर के लिए हि नाते
तब किसी गैर को अपना कहकर कैसे लिखूँ

इंसानों को तो बांट दिया है धर्म के ठेकेदारों ने
बर्बरता की सोच को कैसे की मानवता लिखूँ

बहन बेटियों पर हो नज़र अश्लीलता की
वह समाज है पढ़ा लिखा यह भी मैं कैसे लिखूँ

निकलना मुश्किलि हो बच्चों की माँ को भी
तो उस समाज मे सुरक्षित हैं बेटियां कैसे लिखूँ

रह गई हों बातें ही जहाँ कहने को अच्छी सी
झूठी नसीहतों के बीच किसे मैं समझदार लिखूँ

जीवन का सत्य

धन दौलत सब नश्वर है, जीवन जैसे
शेष न बचता कुछ जलकर राख के जैसे
छोड़ यहीं पर जाना है कर्मों को अपने
केचुल् छोड़ के बढ़ जाता है नाग भी जैसे

होकर भी सब तेरा,तेरा कुछ ना हो पायेगा
रिश्ते नाते छोड़ धरा पर हि, तन्हा तु जायेगा
चार दिनों के आँसुं हि तेरी कुल कीमत होगी
बादे इसके तु केवल यादों में हि रह जायेगा

कर्मों का परिणाम हि केवल तेरा अपना होगा
अपना अपना कहना तेरा, सब सपना होगा
सोच समझकर जीने मे हि जीवन का दर्शन है
सत्य कर्म के पथ से हि मिलता जग का वंदन है

रहा न कोई शेष धरा पर,कितना हि हो रुस्तम
राजा हो या रंक, कर्मों से हि अपने हुए खतम
रह गये मिलकर मिट्टी में, राजमहल सारे
नियमों के बंधन मे हि बंधे यहाँ लोग हैं सारे

मिलजुलकर हंसी खुशी से हि सबको रहना है
रहना प्रेम परस्पर से हि हर मानव का गहना है
स्वर्ग नर्क सभी का है सार तुम्हारे हि हाथों में
पूजा हो या हो दुत्कार, सब सत्य तुम्हारे हाथों में

सच्चाई की तलाश

बरसते इन बादलों के बीच
तलाश है स्वाति के एक बूँद की
दुनिया के इस भरे बाजार में
तलाश है खुद के अस्तित्व की

देखे हैं हर तरह के लोग हमने
तलाश है उनमे एक इंसान की
सुनता हूँ भगवान् हैं सभी के भीतर
तलाश है उनमे से एक भगवान् की

रिश्ते हि बचाते हैं व्यक्ति की डूबती नाव को
तलाश रिश्तों मे उस एक रिश्ते की
बिकता नहीं स्वाभिमान स्वाभिमानी का
तलाश है उस एक स्वाभिमानी का

धर्म हि बुनियाद है जीवन के कला की
तलाश है उस एक बुनियाद की
सुन ली जाती हैं हर पुकार उस दरबार मे
तलाश है इंसानियत के उस पुकार की

रही तलाश ताउम्र हर एक अच्छाई की
तलाश है अब खुद के भीतर के एक अच्छाई की
गुजर गई उम्र जमाने की सच्चाई को तलाशते
तलाश ही न पाया मगर खुद के भीतर की सच्चाई को

भूल जा

निकालना होता है अब वक्त उनको
कभी गुजरता नहीं था वक्त उनका
बदलते वक्त की होती है तासीर यही
आज हैं कई, कल कोई न था उनका

बदल जाता है मिजाज मौसम का वक्तपर
हो जाता है व्यस्त हर आदमी हि वक्त पर
भूल जाते हैं पुराने नये के आने से वक्त पर
रह जाती हैं सिर्फ यादें हि, यादों के वक्त पर

रहा नहीं दौर किसी गिले या शिकवे का अब
जरूरतें हि बनाती हैं पहचान रिश्तों का अब
दब जाती हैं भावनाएं भी वक्त के तकाजे मे
बंटता हि जा रहा है आदमी किश्तों में अब

पास रहकर भी बढ़ने लगी हैं अब दूरियाँ
उथले पानी में हि डूबने लगी हैं अब किश्तियाँ
नहायें तो नहाएँ किस किनारे पर जा के हम
डूबी हि जा रही हों जब मतलब मे हस्तियां

कर नेकी और फेंकते चला जा दरिया में उसे
भूल जा कि तुने दिया था कभी साथ उसे
सफर में अपने तुझे ही तनहा चलना होगा
बढ़ा ले कदम मंजिल अपनी और भूल जा उसे

नजरंदाज

जरूरी है कि कुछ बातों को
नजरंदाज हि कर दिया जाय
हर बातों पर सोचते रहना
कल के लिए मुनासिब नहीं होता

कही गई बातें होती हैं निर्भर
तत्कालीन समझ पर
उन्हें उसी वक्त के तराजू पर
तौल लेना समझदारी नहीं होती

लगता है सूरज को भी वक्त ढलने मे
हर पन्ने में कहानी नई बनती है
एक हि रास्ते काफी नहीं होते
मुकाम हि अंतिम लक्ष्य होता है

स्वयं में दिशा का भटकाव न हो
और तो मात्र दर्शक हि होते हैं
जीत गये तो बजती हैं तालियां
हार पर मिलती हैं गालियाँ

समझेगा कोई नहीं आपको
नमन तो दर्ज है प्रभात के नाम
तपकर हि रहना है प्रकाशित
देखेगा नहीं कोई आपके ताप को

प्यार से

रुकिए, थोड़ा फंसे हुए हैं
आज यही जुबान हर इंसान की
व्यर्थ मे हि बीता जा रहा आज भी
तब करोगे कब किस वर्तमान में

रुकेगा नहीं समय आपके लिए
तुम्हे ही सोचना है कल के लिए
निकलिए अपने इस आज से
चलना है तुम्हे लक्ष्य के लिए

रुकावटें तो हिस्सा हैं सफर में
कुछ दी हुयी औरों की ओर से
कुछ आपकी कमियों की वजह से
आओ, देकर धक्का अब जोर से

जरूरी है नर्मी, सख्ती और सुधार
आपसे ही होना है खुद का उद्धार
इस भीड़ में हो रहा केवल व्यापार
इसी से है दुखिया सकल संसार

आते नहीं खास, अलग संसार से
होते हैं तैयार सब इसी बाज़ार से
इन्ही मे से करनी है जीत हासिल
जीत लो दिल सभी का तुम प्यार से

जीवन क्रम

मोती टूट जाय तो फिर बनती नहीं मनका
पड़ जाय गाँठ तो जुड़ता नहीं भाव मन का
बिखरने से पहले ही कोशिश हो जुड़े रहने की
भरोसा क्या है छूट जाय कब साथ तन का

समझेंगी नहीं औलादें कीमत आपकी
आपको हि समझनी होगी कीमत उनकी
फासले की दूरियाँ भुला देती हैं अतीत को
कहानियाँ रह जाती नहीं याद बचपन की

बदलते हुए दौर में बदल जाता है सबकुछ
बदलते नहीं एहसास गुजरे हुए वक्त के साथ
कर लेना चाहिए महसूस कुछ देखकर भी
हर बात की तारीख भी याद दिलाई नहीं जाती

पछतावा कभी किसी बात का हल नहीं होता
प्रायश्चित मे भी समाधान कहाँ मिलता है
करना होता है जो खुद को हि करना होता है
और की उम्मीद से गुलशन कब खिलता है

जो भी हो आप खुद ही स्वयं हो अपने लिए
और का होना तो महज एक मानसिक भ्रम है
खुद के चलते से हि मिलते हैं किनारे गंगा के
जीत हो या हार, यह तो चलते जीवन का क्रम है

कुछ तुम कहो कुछ हम कहें

रखिये न बात दिल के भीतर ही भीतर
बेहतर होगा कि कुछ तुम कहो कुछ हम कहें

कट जायेगा सफर हँसते हँसते जिंदगी का
खोल दो गांठे मन की, न तुम सहो न हम सहें

शिकवे गिले के बीच, उलझे रहेंगे कबतक
घुटन से आओ दूर कुछ तुम रहो कुछ हम रहें

कमियां होंगी तुममे तो कुछ हममें भी होंगी
समझ लेते हैं, दूर कुछ तुम करो कुछ हम करें

देखा है किसने कि कल के हालात कैसे हों
क्यों न मिलके साथ तुम भी चलो हम भी चलें

हो जाना है दूर हि जब, इक रोज इस जहाँ से
क्यों न कुछ के दिल में तुम रहो कुछ के हम रहे

सोच की अपंगता

दिव्यांगता अंग की हो तो
जीवन भंग नहीं होता
अपंगता हो यदि सोच की तो
जीवन में कोई रंग नहीं होता

वेद ,शास्त्र, शिक्षा सभी तो
श्रोत हैं महज जानकारी के
समझ का न हो समावेश तो
जीने का कोई ढंग नहीं होता

कुछ भी सुन लेना, सुना देना तो
होता है प्रभाव किसी और का
व्यवहार हि न हो जीवन में अगर तो
जीवन में कभी वसंत नहीं होता

लोभ से हि बनी संपन्नता है तो
उससे दिली सम्मान नही होता
बिक जाय अगर जमीर हि तो
उसमे कोई स्वाभिमान नहीं होता

मानवता रहित मानव है तो
उस पर किसीको गुमान नहीं होता
सिर्फ एक बोझ है वह धरती पर
असल में वह इंसान नहीं होता

अंजाम

खामोश रहना ही बेहतर होगा
अपने पथ पर हि चलना बेहतर होगा
किसे कहें कि गलत कौन है
खुद को सही रखना हि बेहतर होगा

सोच सभी की है अपनी अपनी
सोच के आधार पर ही समझ भी होगी
आपने भी बदली है कब सोच अपनी
खुद को ही समझ लो तो बेहतर होगा

औलाद ही रहती नहीं वश मे अपने
चाहते हो दुनिया हि आपके वश मे हो
रास्ते सभी के हैं अलग अलग अपने
समझ लो मुकाम को अपने तो बहतर होगा

गैर से लगी उम्मीद का भरोसा क्या
परिणाम के हकदार तो आप खुद होंगे
बदल जाते हैं लोग वक्त के साथ साथ
आप भी समझ लो यही तो बेहतर होगा

हर रास्ते का होता है मुकाम अपना
चयन पर ही आपका भी मुकाम होगा
पहुँचना है आपको अपने अंजाम तक
आज हि परख लो अंजाम को तो बेहतर हो

आत्म्बोध

अनगिनत भाषाओं का ज्ञाता होकर भी
जीवन की भाषा को समझ न पाया
बहुतों को खोज लिया मैने पर
खुद अपने को हि खोज न पाया

नाप लिया दूरी चाँद और ग्रहों तक की
सूरज तक भी पहुँच रहा हूँ
छिपा नही अब ब्रम्हांड भी मुझसे
पर, अंतर्मन तक पहुँच न पाया

विश्व पटल पर शाख हमारी
तोड़े बंधन हर भेद भाव के
सुलझा ली हर उलझी गुत्थी को
बस, मन को हि वश मे ना कर पाया

पाकर भी सब, कुछ पा न सका
होकर भी सब, कुछ हो न सका
अब गर्व करूँ या शर्म करूँ
क्या समझा, जब खुद हि को समझ न पाया

अब कर लूँ पहले, खुद को निर्मल
तब करूँ प्रवाहित जग में निर्मलता
दूषित रहकर कैसे शुद्ध करूँ मैं किसको
कालिख से खुद को हि अबतक बचा न पाया

तु अणु नहीं पूर्ण है

न करिये प्रतिक्षा किसी की
न रखिये विश्वास या उम्मीद
बनिये स्वयं में हि युगद्रिष्टा
बनिये स्वयं ही सबमे खास

करना है आपको हि हर काम
घर, समाज, देश के लिए
सक्षम, निपुण्, कुशल हैं आप
अपने धर्म सभ्यता, संस्कृति के लिए

उठानी हो कलम या लाठी
आप हि हैं भविष्य की काठी
बना लो स्वयं को हि सशक्त इतना
कि बन जाओ खुद ही सबके बैसाखी

अणु नहीं तुम स्वयं में ब्रम्हांड हो
तुम ही हरि हो, शिव हो, रुद्र हो
नर रूप मे है भले जन्म तुम्हारा
किंतु तुम हि ज्वाला तुम ही सब्र हो

मनुज तुम ही आधार हो शृष्टि का
तुम पर हि आश्रित पूर्ण प्रकृति है
समझना न कभी निर्बल स्वयं को
आपके लिए हि निर्मित पूर्ण कृति है

आज से कल

अब समय आ गया है कि
समझे हम अपने अस्तित्व को
करें रक्षा अपने निजता की
निखरें अपने व्यक्तित्व को

स्वयं के लिए हि स्वयं के न होकर
देखना है अपने समाज को भी
बीते को भी करना है आत्मसात
कल के लिए जीना है आज को भी

बाल, युवा, वृद्ध सभी के
हों एकमत एक विचार
समझें जीवन के अर्थ सभी हम
निज हो सभ्यता निज के शिष्टाचार

भारत भूमि बने विश्व श्रेष्ठ
पुन्ह :काल स्वर्णिम का आ जाए
सत्य अहिंसा की धर्म पताका
फिर जग मे फहराये

ना हो कोई भेदभाव
बढे न बैर द्वेष अपनों के बीच
समझें महत्व समय के हम
रहें सभी मिलजुलकर अपनों के बीच

हमराही

मेरी अनजान राहों के हमराही
तुम देना साथ सफर में पूरा
हैं मोड़ कई जीवन पथ पर
होगा तुम बिन हर काम अधूरा

जली ज्योत यह जीवन भर की
दोनों से हि होगा अब उजियारा
हृदय मिलन के इस नंदन वन में
रहे महकता अब घर बार हमारा

पूर्ण समर्पण मेरा है अब तुम पर
साथ हि करना होगा संघर्ष पूर्ण
पर करेंगे हर बाधा हम मिलकर
कर देंगे आधे को भी हम संपूर्ण

मेरे हमराही, हमराज हम सफर
आपके संग हि अब मेरी हर डगर
रहे न मन में संशय किसी के कुछ
होगा जो भी होगा आधा सबकुछ

टूट तारा

सफलता और सम्मान
खरीदे नही जा सकते
खरीदी हुयी वस्तु का मूल्य
कभी भी स्थाई नहीं होती

तौलिये न मुझे बीते हुए कल से
जगा हुआ मैं आज हूँ
कल की खबर है मुझे
अनुभवों के साथ ही मैं पला हूँ

माना कि तारा हूँ टूटा हुआ
राह में हि बिखर नहीं जाऊंगा
दे जाऊंगा कुछ उल्कापिंड की तरह
कर जाऊंगा साबित अस्तित्व अपना

बूंद हूँ, सागर बनूँ न बनूँ
बन जाऊंगा दरिया फिर भी
निकला हूँ घर से ठानकर
बन जाना है श्रोत प्रेरणा का मुझे

चलता नहीं लकीर के साथ
करनी है राह निर्माण खुद की
कोशिश न करो आंकने की मुझे
देख रहा हूँ मैं मुकाम को अपने

आवश्यक

आवश्यक हो गया है कि आज
खुद से हि खुद से लड़ा जाय
पहचान कर निज शत्रुओं को
उन्हे अपने वश मे किया जाय

शिक्षा से मिली जानकारी के भीतर
ज्ञान को भी शामिल किया जाय
बुद्धि और विवेक की तराजू में
भविश्यागत हल को भी तौल लिया जाय

बीज, वर्तमान से हि वृक्ष नहीं होते
अतीत की मिट्टी आज का जल कल की हवा
भी जरूरी हैं फलित होने के लिए
आज के बल पर हि कल सफल नहीं होते

मुश्किल नहीं बाहरी रिपु का दमन
आंतरिक शत्रु का भी अंत होना चाहिए
द्वेष, इर्श्या, छल कपट आदि से भि
हृदय हमारा शुद्ध होना चाहिए

रहे यदि कर मे माल मन में खंजर
तो हरित भूमि भी हो जाती है बंजर
होता नहीं कुछ साथ चलने से हि
सफर में साथ साथ चलना भी चाहिए

गुब्बारे सी जिन्दगी

बन गया है प्यार अब खेल तन का
मन से मन अब मिल कहाँ पाते हैं
कच्ची उम्र का उबलता हुआ इश्क है
जज्बात भी लोग संभाल कहाँ पाते हैं

होने लगी जब से हर अंग की नुमाइश
हो गई है तब से हि हवस की पैदाईश
लगी है होड़ दिखाने की फ़िगर अपनी
थमती हि नहीं अब दिल की ख्वाहिश

बहू बेटी संग संग सब नाच रहे हैं आजकल
कैंडल लाइट के डिनर का चलन बढ़ रहा है
खा रहे सड़क पर खड़े होकर लखपति भी
युवक हो या युवती पतन की सीढ़ी चढ़ रहा है

प्रेम हो गया है मानिंद अब फुले गुब्बारे सा
फूट जाए कब किस हवा के झोंके से क्या पता
रिश्ते चढ़ गये हैं सभी मतलब के तराजू पर
कौन झुक जाये किस तरफ किसको क्या पता

भाग रहे किस ओर परिणाम का पता नही
दिया नहीं साथ किसीने इसमें मेरी खता नही
दिया साथ जब आपने हि नहीं किसी का कभी
निश्चित था गिरना तुम्हारा क्यों तुम्हे पता नही

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें अनगिनत रहीं आपकी
सभी को पाने की ख्वाहिश रही
समझ लेते एक को हि लक्ष्मी यदि
अबतक न होती कोई रंजिश रही

माना कि आम लगते हैं बहुत मीठे
हर डाली मे पर फल कहाँ लगते हैं
मिलने वाले मिल जाते हैं अचानक ही
शहर में ढूँढने से हि कहाँ मिलते हैं

कोशिश मे गाँव वीरान भी आबाद रहे
हर दिल में तेरे चाह की बनी साद रहे
रख जवाँ हौसले बुलंद अपने तू हरदम
एक हि ख्वाहिश मे रहे तु पुर कदम

जा रही छाँव भी अब दोपहर की
लगता नहीं वक्त शाम के ढलने मे
मुकाम तक में थक न जाए तू कहीं
ख्वाहिशों में ढल न जाए शाम कहीं

चुन ले अब राह मंजिल कि कोई
किया इंतजार बहुत अच्छे वक्त का
मिले वक्त को हि कर ले वक्त अच्छा
आज से बेहतर वक्त हि नहीं वक्त का

मोल

अलगाव के रास्ते कई हैं जमाने में
लगाव के रास्ते तो होते हैं एक ही
रिश्ता हो जिस किसी से भी कोई
उसके प्रति भावना हो बस नेक ही

मिलते हैं लोग बिछड़ते हैं लोग
पथ मेहर तरह के मिलते हैं लोग
समझकर हि उनसे बढाइये प्रीत
पल भर में बदल जाने की है रीत

भुला देते हैं एहशान पल भर में
उठा देते हैं दीवारें भी कई ग़जब
कर देते हैं कत्ल हर जज्बात के
लाकर जात, धर्म और मजहब

मानव मानव के बीच का भेद यह
सोच के विकास पर होता है खेद यह
रखे है जो अलग थलग निज हृदय
हो नही सकता वह किसी मे विलय

हर मुलाकात है रूप उस परम तत्व का
निश्छल प्रेम ही है मूल मानव धर्म का
धन, शिक्षा, वैभव या साधन सब सारे
रखते हैं मोल द्वेष मे दो कौड़ी के सारे

दस्तक

कैसे कहें हम दरख़्त उसे
परिंदे भर की जहाँ छाया नही
खड़ा ठूंठ भले राजपथ पर
बचा कौन जिसे भरमाया नहीं

मकान की उचाई तो ईंटों का जोड़ है
उचाई तो दिलों के जोड़ की होती है
कपड़ों की सफाई हो न हो आपके तन पर
दिलों की सफाई मन पर कहाँ हो पाती है

शब्दों की मिठास कभी भी
हृदय की मिठास नहीं बन पाती
भावनाएं हि अटल सत्य हैं
किसी भी हाल में छिप नहीं पाती

दिखावे की मुस्कान मे सब हँसते
पक्के मकान कच्चे रिश्ते
आधुनिकता के दलदल मे खड़े सभी
तिल तिल जा रहे हैं धंसते

अपनों हि अपनों मे कटुता भरी
उठ रही दीवारें शत्रुता बढ़ी
बढ़ रहे खुशी की दौड़ में तनहा
पता हि नही मौत द्वारे खड़ी

चलना होगा

देंगे तुझे यदि साथ कोई
तो होंगे वे तेरे और हि कोई
तुझे तेरे न कोई साथ देंगे
तुझे न कभी वो समझ सकेंगे

होगा कभी संकोच बंधन
कभी होगा आगे स्वाभिमान
कभी तू कुछ कह न सकेगा
कभी अपने तेरे कह न सकेंगे

उलझकर न रहना इनमें कभी
जलेगी न ज्योत उनमें कभी
रास्ता तेरा मंजिल तेरी
होगी उम्मीद खोखली तेरी

चाहेंगे सभी पाना तुझसे
होगा न कभी कुछ तेरे लिए
निः स्वार्थ की बातों में स्वार्थ होगा
वरना वक्त नहीं तेरे लिए

खुद हि तुझे चलना होगा
गिरकर भी संभलना होगा
होगा उदित तेरा भी सूरज
पर, सूरज सा तुझे तपना होगा

रेतीली धूप

किताब से गायब हों पृष्ठ क्रमांक जैसे,
यादें भी गायब हुयीं ज़िंदगी से कम ऐसे।

मिले थे कब क्या बातें हुयी थीं उनसे,
भीड़ मे खो गई है वह हमदम जैसे।

करते क्या तलाश उनकी दिल से हम,
हम खुद ही खो गए खुद से एकदम जैसे।

चले थे औरों के लिए खुद को भुलाकर,
आये ही नहीं औरों की नज़रों में हम जैसे।

मशगूल हैं सभी हिकमत में अपनी,
हम ही फिर रहे, सिरफिरों में जानेमन जैसे।

हर शख़्स देख रहा फ़क़त अपनी अपनी,
रेतीली धूप में नूर सा दिखता है कण जैसे।

कलम पुजारी

हम तो ठहरे कलम पुजारी
लिखते रहना ही है काम हमारा
आपको प्यारी फूल की माला
तुम्हे मुबारक जग सारा

देखी है हमने धरती प्यासी
गगन को तपते देखा है
रही ऐंठती आतों को भी उर में
हमने खुद को भूख मे जलते देखा है

हाथ की माला जपकर हमने
कल की उम्मीद को बाँधा है
अश्क स्वेद सभी को पीकर हमने
तम के भीतर भी लक्ष्य को साधा है

हमे बनावट की सीख न दो
हमसे हि सजावट हुयी तुम्हारी
ऐसे हि कलम उठी नही कर मे
केवल कहने की नहीं अब तैयारी

अब बदलेगा दौर वक्त का
अब होगा नृत्य कर्म का
अब होगी रवि की किरण प्रखर
फहरेगा अब ध्वज सत्य धर्म का

मदद

जताकर मदद की हमदर्दी
ओढ़ा देते हैं कफन एहशान का
ताकि उठकर खड़ा भी हो जाये बंदा
तो सर झुका हि रहे हरदम

रखते हैं दबी जुबान से हाथ पर
खोल देते हैं जबान समाज में
आये हों भले किसी गरज से खुद
मगर गिरा देते हैं उसे आज मे

रहता है किसका उजाला ही
रहता है कौन अंधेरे में ही
बदलता है वक्त सभी का कभी
रहता है फंसा कौन घेरे में ही

खलता नहीं तन की दिव्यांगता
खल जाती है सोच की अपंगता
कर देती है आहत आम जन को
शब्दों में बंधी मिठास की विद्वता

यह समझ लेना उनका
कि समझ नहीं पाता है कोई नही
यही तो है नासमझी उनकी
जिसे कह नहीं पाता कोई

छाँव की तलाश

मैं तो हूँ एक खंडहर की
टूटी हुयी दीवार
मुझमे छाँव तलासोगे कब तक
खुद ही बन जाते क्यों नही मकान
किसी दिन महल कहलाओगे

आज जर्जर भले हूँ खड़ा
तब भी समेटे हूँ कई इतिहास
कह सकता हूँ गर्व से उन्हें
आकर गुजरे हैं जो पास
सुनानी तो होगी तुम्हे भी कल अपनी
होगा जिन्हे तुमपर विश्वास
कहो किये क्या तुमने खास

घूमता हुआ चक्र है काल का
जमीदोज हुयी हस्तियां कई
मरा जमीर अभिमान मे
खो गई भंवर मे किश्तियाँ कई

है वक्त अब भी संभल सकते
धुंध है शाम की रात नहीं आई
खोलकर देख लो बंद आँखें अपनी
पिघलने लगी है परछाई

स्वाभिमान आपका

बिक जाता है जमीर भी बाज़ार में
तब भी हर चीज बिकाऊ नहीं होती
माना कि जरूरतें जरूरी हैं जिंदगी में
मगर हर जरूरतें जरूरी नहीं होतीं

जगमगाती हो रात भले सितारों के साथ
रोशनी तो मिलती है मगर चाँद से ही
किसी प्रभाव के वशिभूत से हुआ अभाव
रखता नहीं वंचित आपको डगमगाने से

आप जो भी, जैसे भी जितने भी हैं आज
पर्याप्त हैं आज के अपने वर्तमान में
क्यों डुबा रहे किसी और कि तुलना में खुद को
तपिश के योग्य तो पहले बनाओ खुद को

स्वाभिमान से बड़ी दौलत क्या होगी
किसी के एहसान से बड़ा अपमान क्या होगा
बिक जाते हैं पुरखे तक आपकी गद्दारी पर
इससे बड़ा बोझ उनपर और क्या होगा

अंजान हैं आप अपनी स्वयं की पूर्णता से
मिलती है राह सदैव आवश्यक्ता से हि
बस, खोलनी होती है गट्ठर अपने समझ की
निजता मे हि दीप्ति है ज्योत आपके भव्यता की

चाहे तो

हम सब एक पथिक हैं जग में
करने आये अपना अपना कर्म
प्रारब्ध अनुसार हि मिला जन्म
करने हेतु हमे केवल सत्कर्म

लख चौरासी का चक्र जगत में
सबमे उत्तम यह तन मानव का
ईश्वर सम हि यह रूप मिला हमे
तज पथ मोक्ष का धरे रूप दानव का

चेत नर समय पर मिले न दुजी बार
सत्य सुलभ का धर हाथ अब चल तू
चाहे क्यों रहना बंधकर अब ले निकल तू
द्वार प्रभु का है खुला संशय न मन पाल तू

राही रह राह पर भटक मत जाना
चंचल मन संग गलत मत करना
अवसर न आता हर बार समझ ले
काया मिली अनमोल माया से बच ले

शृंगार सारथी न होंगे कभी मान ले
त्याग, तप, दया, धर्म को हि जान ले
समय न कर व्यर्थ पल भर तू यही सत्य है
चाहे तो मरकर भी तू अजर अमर नित्य है

कैसे कहें

कैसे करें कि हसरतें बयां नहीं होतीं
कैसे कहें कि चाहतें जंवा नहीं होतीं

भले न मिले कहने को अल्फ़ाज कोई
कैसे कहें कि तमन्नाएं रवां नहीं होतीं

जब से देखी है इन आँखों ने हंसी तेरी
कैसे कहूँ की इन आखों में तू नहीं होती

माना कि माकूल नहीं तेरा मिलना यहाँ
बेबसी के आलम मे सबर भी नही होती

मिलना हो मुमकिन कभी ये दुआ रब से
दिल कि ये हसरत कभी कम नहीं होती

खुश रहे, ये सोच के हंस लेते हैं हम
लमहा नहीं जब पलकें नम नहीं होतीं

पूर्णता का भ्रम

यह सच है कि सम्पूर्णता मे हि पूर्णता है
अपूर्णता मे रिक्तता है
किंतु, बदले हुए इस माहौल में
अपूर्णता मे हि सार्थकता है

आधे जल का घडा भरा लगता है
चालबाज हि खरा लगता है.
गलत का विरोध दुश्मनी होती है
न्याय के आँख पर पट्टी बंधी होती है

जिसकी लाठी भैंस उसकी
मजबूर की कहाँ है चलती
अपूर्णता ने हि पहना है चोला पूर्णता का
कहने भर को है सम्पूर्णता मे हि पूर्णता

अपनी अपनी डफली अपना अपना राग
मतलब मे हि लिपट गया है अनुराग
पता नहीं किस खातिर भाग रहे
मची हुयी है बस भागम भाग

पता नहीं होगा कैसा अंत
समझ रहे सब खुद को हि कंत
रहते समय यदि आई नहीं चेत
होगा केवल जल या फिर रेत हि रेत

फर्क एक का

कुछ लोग कहते हैं क्या बदला है
एक के जीत या हार जाने से
फर्क क्या है किसी के आने या जाने से
चलता आया है यही जमाने से

बेशक, न पड़ा हो वहाँ
पड़ भी सकता है कल परसों
एक के आने से हि बदल गई थी व्यवथा
जरूरी तो नहीं कि लग जायें बरसों

एक होता है प्रतिनिधि क्षेत्र का भले
किंतु करता है प्रतिनिधित्व देश का
एक नेता हि नहीं, मतदाता भी
बदल देता है भाग्य देश का

क्या एक राम के राज्याभिषेक ने
किया नहीं उथल पुथल
क्या एक राम से हि,
लंका रह पायी थी अटल

इसी एक से क्या होता है कि सोच ने
गिरा दिया है कितना सनातन को
एक ने हि किया था संकल्प
देश को दिलाने सर्वोच्च आसन

एक का मूल्य समझना होगा
दोष देना नहीं दोषी मानना भी होगा
एक क्षेत्र, एक व्यक्ति, एक प्रति को.
अपने एक के मूल्य को आंकना होगा

जिंदगी

करते तो हैं सभी इश्क जिंदगी से
पर, समझ नहीं पाते रश्क जिंदगी के
रह जाते हैं कुछ ख्यालों में उलझे हुए
समझ लेते हैं कुछ उसूल जिंदगी के

जिंदगी देन भी है प्रारबद्ध की
एक तोहफा भी है कुदरत का
समझ लो तो एक खेल है जिंदगी
मान लो तो बहुत अनमोल है जिंदगी

जो करते हैं इश्क जिंदगी से
उनके लिए एक वरदान है जिंदगी
है चाहत जिन्हे फ़कत आराम की
उनके लिए शमसान है जिंदगी

महज जीने का हि नाम नहीं जिंदगी
खुद के खातिर हि बनी नहीं जिंदगी
प्रकृति की अनुपम कृति है जिंदगी
हर योनियों मे विशिष्ट है जिंदगी

मुक्ति का द्वार भी है जिंदगी
उद्धार का मार्ग है जिंदगी
समझ लो तो तर जाती है जिंदगी
ना समझे तो जीते जी मर जाती है जिंदगी

दर्पण

सोचता हूँ छोड़ दूँ तुम्हे तुम्हारी हाल पर
मजबूर हूँ दिलसे मगर, जो मानता नहीं

समझ रहे तुम, अपनी ही समझ के दायरे से
चाहूँ कहना दिल की, मगर दिल मानता नहीं

भूल जाना था कल को,पर आज को मत भूलो
चाहूँ जगाना नींद से, मगर दिल मानता नहीं

बदलते दौर का वक्त है, समझ लो इस वक्त को
बता दूँ मोल वक्त का, मगर दिल मानता नहीं

सुनो न धुन बीन की, सपेरों की चाल है ये
बताना चाहूँ छल को, मगर दिल मानता नहीं

आश्रित है कल भी, तुम्हारे आज के हि हाथ में
दिखा तो देता दर्पण, मगर दिल मानता नहीं

हिंदी साहित्य में हिंदू

एक उलझन सी मची है दिल में
साहित्य की तलाश हो या साहित्यकार की
सत्य की हो खोज या सरोकार की

साहित्य को तो पढ़ा जा सकता है खरीदकर
साहित्यकार बिकाऊ नहीं होता
मगर भयभीत समाज में
साहित्य को दर्पण सा बनाना नहीं होता

माना कि देश मे प्रजातंत्र है स्वतंत्रता है अभिव्यक्ति की
तब भी क्या वास्तव में साहित्य भी है
अनगिनत हिंदी साहित्य समूहों में तो नहीं

हिंदुस्तान, हिंदी साहित्यिक समूह
हिंदी लेखन, हिंदू लेखक
हिंदुत्व स्वाभिमानी, हिंदू हित की बात
करे यह हिंदी समूह को बर्दास्त नहीं

वर्जित है धार्मिक चर्चा वर्जित है मानसिक
अन्याय की, प्रलोभन की, शोषण की
छूट है , प्रेम , प्यार, मौसम, दिन विशेष की
छूट है विरह, गर्मी, वर्षा की यही पहचान बनी है साहित्य की

समूहों के संचालक हिंदू
हिंदी साहित्य के लेखक हिंदू
हिंदुत्व की बात करे कैसे जब भयभीत हिंदू
विश्व व्यापी हो बन रहा बिंदु, तब भी
है अजर अमर स्वाभिमानी हिंदू
हिंदू हि बन न पाया कभी हिंदू
आज भी है कौन हिंदू कल भी रहेगा कहाँ हिंदू

अगुआई

अपनों ने हि लगा रखी हैं बंदिशें
सत्य बोलना मना है
प्रसंशा करिये दिल खोलकर
विरोध में बोलना मना है

करिये न बात सनातन की
हिंदू हो भले हिंदू होना मना है
हिंदू हि होने नहीं देंगे हिंदू तुम्हे
धार्मिक जड़ों को सींचना मना है

आप सामाजिक हैं सबके
अपने समाज का होना मना है
करे कोई भले घात प्रतिघात
उसकी पोल खोलना मना है

क्षेत्र है साहित्य का, जो आईना है
आईने मे जागना जगाना मना है
चापलूसी की छूट है पूरी
सार्थक बोलना मना है

शुद्ध लेखन होना चाहिए
चले न कलम अपनों पर
भले कल अपनों का रहे न रहे
स्वाभिमान निजता का रहे न रहे

रेस में दौड़ रहे गदहे कुत्ते सभी
गधों की जीत सुनिश्चित होगी.
नोच लेंगे कुत्ते हि कुत्ते को
कुत्ते के लिए कुत्ते अगुआई मना है.

बिकाऊ समाज.

बदलते हुए दौर का वक्त है
जरा संभलकर पैर रखिये
रास्ते कांक्रिट के बन रहे हैं
जमीनी नमी गायब हो रही है

सूरज हि केवल नहीं तप रहा
सोच के लहू मे भी उबाल है
समझने की फितरत अब नहीं
छोटी सी बात मे भी मचा बवाल है

कल के उजाले की फिक्र नहीं रही
आज की मुट्ठी मे चांदनी चाहिए
देख लेंगे वक्त को वक्त आनेपर
वक्त के लिए भी वक्त होना चाहिए

बिक जाता है जमीर एक कप चाय पर
बिकाऊ समाज में भरोसा किसपर
दिखता नहीं सम्मान के पीछे का छल
किससे करें उम्मीद किस बात पर

भूल जाता है पल भर में एहसान किसी का
रहा नहीं काबिल इंसान भरोसे का आज
हुआ नहीं जो राम की नगरी मे राम का
करें क्या नाज उसपर हम आनेवाले कल का

जीना है तो

हक खड़े हो गये हैं सारे
रेत के टीले पर
करें यकीन किसके अपनेपन पर
हो गये हैं कैद अपने जमीर पर

रही नहीं बात कुछ कहने की
सुनने को तैयार नहीं कोई
सबकी अपनी मानसिकता है
लगाव को समझता नहीं कोई

भावनाएं बन गई हैं बुलबुले सी
फूट जाती हैं जरा सी विरोध पर
धैर्य खो गया है अहम मे
सहशीलता रुक गई है अवरोधक पर

बर्दास्त का खून खौलता हुआ है
स्वाभिमान खड़ा लाठी लिए
लिहाज की नौका डूब चुकी है
आदर आ गया है कागज का फूल लिए

चाहते हो बची रहे पत पानी
तो रहो खामोशी के साथ तुम
ओझल है कल सबकी आँखों से यहाँ
जीना है तो जी लो बस आज के संग तुम

केवल

यूँ तो कट हि जाता है वक्त
बीत हि जाती है उम्र
बने हि रहते हैं गिले शिकवे
हाथ रह जाता है केवल सब्र

हर किसी की यही हकीकत है
खुद की बनाई फजीहत है
छिपी है तमाम मैल दिल में
सिर्फ होठों पर नसीहत है

ईमान पर यकीन नहीं
ज़मीर नहीं जमीन नहीं
हवाई महलों के ख़्वाब हैं
पूछो तो बेमिसाल जवाब हैं

दिखती हैं गलतियाँ औरों की
होती हैं बातें गैरों की
फरिश्तों के खानदानी हैं सब
हैरत मे हैं आज रब

जाने क्या हश्र होगा
जाने कब फख्र होगा
वक्त पर हि वक्त की कद्र है
फिर तो केवल कब्र होगा

अक्सर

यह सच है कि आप ईमानदार हैं
रखते नहीं कर्ज का बोझ किसी का
पर, चुका पाएंगे क्या कर्ज एहसान का
समय पर मिले उस वक्त के साथ का

होंगे रहे तब भी हमदर्द कई आपके
हो गये होंगे व्यस्त आपकी जरूरत पर
बढ़कर थाम लिया जिसने तब हाथ आपका
वही कर्ज है आप पर मानवता के धर्म का

चलते नहीं गणित के सिद्धांत हर जगह
लेन देन तो होता है चुकता केवल बहीखाते मे
मानवता हि बांधे रखती है प्रेम के बंधन में
करता है सिद्ध यही, आप अकेले नहीं रास्ते में

देना होगा तुम्हे भी साथ और का इसी तरह
दिया किसी ने तुम्हे तुम्हारे वक्त मे जिस तरह
यही तो है व्यवहार जगत का अनमोल
हल्के हैं इसके आगे दुनियाँ के सारे तोल

बदलते वक्त के साथ बदल जाती है हर बात
सदा एक जैसे रहते नहीं दिन हो या हो रात
समय की सीख से लें कुछ सीख तो बेहतर है
लौटकर आता है फिर वक्त, होता यही असर है

नशा तलब

नशा हर चीज मे होता है
तलब हर चीज की होती है
जीवन खुद भी एक नशा है
जीने की भी तलब होती है

नशा गांजा, भांग, तांबखु हि नहीं
नशा बियर, व्हिस्कि, दारू हि नहीं
नशा तो किसी के इश्क में भी होता है
तलब तो किसी को पा लेने की भी होती है

सुरापान मे हि नशा नहीं होता
धूम्रपान की हि तलब नहीं होती
बात कर लेने का भी नशा होता है
नज़र भर देख लेने की भी तलब होती है

जिंदा रहने को चाहिए भोजन
भोजन का भि नशा होता है
नींद को भी एक नशा हि तो कहेंगे
भटकते रहने की भि तलब होती है

चाहत का नशा भि बहुत बुरा होता है
ज्यादती हो किसी की भी बुरी होती है
धन, सम्मान नाम, घर सब नशा हि तो है
रह न पाएं बिना उसके यही बस तलब होती है

बड़प्पन

टूट जाता है दिल जब बातों से
बहती नहीं तब वो प्रेम की धारा
रिश्ते तो रह जाते हैं कायम मगर
मिट सा जाता है लगाव सारा

हो जाती हैं खामोश उमंग की तरंगे
रुक सी जाती है बढ़ने की हलचल
भरे रहते हैं जल जैसे निर्झर के
किंतु थम सी जाती है कल कल

तमाम कोशिशों के बावजूद भी
ताली एक हाथ से बजती हि नहीं
गाड़ी हो महंगी चाहे जितनी
भाव के इंजिन बिना चलती हि नहीं

बातों से हि रिश्ते कहाँ चलते हैं
उन्हें समझ लेना भी जरूरी होता है
स्वयं के कुछ कहने से पहले
उन्हें सुन लेना भी जरूरी होता है

पूर्णता नहीं किसी मे
जानकर भी कम नहीं किसी से कोई
ये कैसी भूख बड़प्पन की
किसी से झुकता नही कोई

कहाँ गये वो दिन

जब, पढ़ी जाती थिं ऋचायें, वेद पुराण
देते थे सुनाई महाभारत, रामायण
कहाँ गए दादा दादी, और नानी की कहानी
बैठे चौपाल, बूढों मे भी रहती थी जवानी

भाई भतीजे, नात हित, सब रिस्तेदारी
था अपनापन, करते दूजे की रखवारी
प्रेम था लगाव था अपनापन था
थे वो हंसी खुशी के दिन, कहाँ गए वो दिन

हुए वो दिन दुर्लभ, मिटे भाव मन के
जमी मैल मन में, बिखर गये मन के मनके
बोली, भाषा बदल गई, उतर रहे कपड़े तन के
कहाँ गये वो दिन, कहाँ गये!!!!?

खुश हूँ

पहुँचे नहीं हैं यहाँतक
सिर्फ क ख ग घ पढ़ते हुए हि
गिर गए हैं सिर के बाल आधे
इस दुनियाँ को पढ़ते हुए हि

सच है कि कर नहीं पाए फतह
ख्वाहिश थी जिस किले की
इतना तो नाम होगा हि कि
हो गया शहीद लड़ते लड़ते

हो उनकी हि ताजपोशी
चाहत हो जिनको राजपद की
हम तो ठहरे सिपाही जंग के
औकात हमारी छोटे कद की

सेवक हैं वतन के अपने
कर्म हि हमारी पूजा है
बसता है देश हृदय में हमारे
और नहीं कोई दुजा है

स्वेद भी बहाये कलम भी उठी है
वक्त को देखकर हि नींद भी लगी है
पहुँचे हैं सफर के करीब अब
खुश भी हूं कि सांसें भी कम हि बची हैं

भेद

वेदों का अनुकरण करें या न करें
सिद्धांतों का अनुसरण जरूर हो
ज्ञान हो न हो भले व्याकरण का
जीवन का समीकरण जरूर हो

जरूरी नहीं समाज का चिंतन हो
निजता का चिंतन बेहद जरूरी है
सपनों की उड़ान हो चाहे जितनी
उड़ने की हर हद्द मगर जरूरी है

शंकाओं का निराकरण चाहिये
समश्याओं का समाधान जरूरी है
नाप लें चाहे जिस पर्वत की उचाई
आकाश पर भी नज़र का जरूरी है

आज हि आज मे भले जी लें आप
मगर मरकर भी जिंदा रहना जरूरी है
आना जाना तो कर सकते हैं सभी
सदा के लिए दिलों बस जाना जरूरी है

नाम मे हि तो रहती है जान आपकी
काम से हि तो होती है पहचान आपकी
कुछ तो होगा फर्क नर और पशु जीवन में
इसी भेद मे छिपी है सार्थकता आपकी

जरूरी है

महज तदबीर हि काफी नहीं
तकदीर का होना भि जरूरी है
कोई माने या न माने बात को
खुद की रहमत होना भि जरूरी है

मंजिल तक पहुँचने की खातिर
सही दिशा का होना भि जरूरी है
थक जाएं कदम भले चलते चलते
मगर संकल्प का होना भि जरूरी है

मिलते हैं मोड भि अनगिनत राहों में
समझने के लिए विश्राम भि जरूरी है
विकल्प भि होते हैं सहायक कई बार
जटिलता मे कुछ पर्याय भि जरूरी है

सोच हि काफी नहीं सफलता के लिए
मन की दृढ़ता का भि होना जरूरी है
मिलते हैं लोग तो राह मे हर तरह के हि
मगर खुद पर विश्वास का होना भी जरूरी है

होते नहीं एक से हर वक्त के मौसम यहाँ
मौसम को देख बदलना भि जरूरी है
जल्दबाजी मे निकलता नहीं सूरज कभी
वक्त के होने तक ठहरना भी जरूरी है

प्रभावी

हावी होना चाहता है हर आदमी
प्रभावी बने बिना ही
संभव होगा कैसे यह भला
निज करतब के बिना ही

सुंदरता दिखाने में नहीं
बल्कि सुंदर होने मे है
ख्यालों की मिठास से
समंदर का जल मीठा नहीं होता

किताबों में लिखे ज्ञान को
चाटे जा रहे हैं दीमक
और तुम कह रहे हो
अच्छी किताबें मिलती कहाँ हैं!

रंगीन चश्मे से
कुछ भी रंगीन नहीं होता
नंगी आँखों से देखो तो जरा
घर के बर्तन खाली खनक रहे हैं

चलना तो होगा जमीन पर हि
पहाडों पर अनाज नहीं होता
कल के पाले हुए ख्वाब से कभी
किसीका सफल आज नहीं होता

धरातल

रहती हैं स्वागत मे व्याकुल आपके
सफलताएं और संभावनाएं
रास्तो को रहता है इंतजार कदमों का
जरूरी है की आप समझ पाएँ

होती है दूरी तय कदमों से चलकर
मिलते हैं मुकाम लगन से
समय होता नहीं विशेष के लिए
विशेष खुद को हि बनाना होता है

जमीन मे गिरकर हि बीज
छूता है गगन की उचाई
बूँद गिरकर हि बनती है गंगाजल
गिरने में भी विनम्रता जरूरी है

बुनियादी धरातल हो ठोस
तो मकान की उम्र लंबी होगी
हवाओं का भी जरूरी है आना जाना
तालमेल भी बनाये रहना चाहिए

अकड़ कर देती है दो भागों में
लचीलापन हो जाता है खड़ा फिर से
एक आप हि आदमी नहीं काम के
रहती है काबिलियत और के भीतर भी

मसले

घरौंदे के टूट जाने से
दरख़्त टूटा नहीं करते
एक रूठ जाने से
परिवार छूटा नहीं करते
बदलये रहतें हैं हालात समस्याओं के भी
समस्याओं से दिल कभी
छोटा नहीं करते

अंधी के आ जाने पर
बैठ जाना हि उचित है
अपनी सामर्थ्य की परख
खुद को हि करनी होती है
और के कहने पर
शेर से लड़ा नहीं जाता

मुश्किल नहीं होता काम कोई
तब भी
हर काम हर आदमी नहीं कर सकता
हर आदमी हि तैराक हो अगर
तो नाव की जरूरत ही क्या है

जरूरी है रिश्तों की डोर मे
बांधे रखना खुद को
उतार चढ़ाव स्थिति का हो या समझ का
सुलझाने से सुलझ जाते हैं
हर मसले
फिर वो परिवार के हों या जिंदगी के

विफलता

कंचन हो या चंदन
जरुरी है तपना या घिसना
गेहूं को सार्थक होने के लिए
जरूरी है जाँत मे पिसना

मान लो यदि रात को क़ाली
तो रहता है अंधेरा भी रातभर
रहता है सवेरा आँखों में जिनकी
वे हि चल पाते हैं भोर भर

तन अपंग हो तो हो भले
सोच की अपंगता नहीं चाहिए
सफलता मिले या न मिले
धैर्य की विफलता नहीं चाहिए

न हो खून रिश्तों का कभी
न हो आलम मतलबी
अपनों के साथ ही बढें कदम
न हो स्वार्थ की तिशनगी

मौसम की तरह है वक्त भी
ये आता है लौटकर भी
हार की उम्मीद से हो संघर्ष तो
हार जाता है आदमी जीतकर भी

खुद से वादा

गम तो बहुत हैं जिंदगी में
झाड़ झन्खाड से भरी हैं राहें
निकलना है इन्ही मे से तुम्हें
मिलेंगी आगे खुली बाहें

जाल भी अपनों की होगी
बात भी सपनों की होगी
चलना होगा आपको हि
तय करना होगा आपको हि

आकाश भले उपर होगा
पर्वत तो कदमों के तले हि होगा
देखोगे जब नभ की उचाई
तब पर्वत कुछ नहीं होगा

लघुता मे हि श्रेष्ठता है
अपूर्णता से हि पूर्णता है
कर्म से पहले की निराशा हि
समझ की संकीर्णता है

संकल्प से हि सफलता आधी
पहले कदम मे हि तय आधा
लौटना नहीं अब कर्म पथ से
कर लो यही खुद से वादा

सर्वथा

काश ! वो आ गया होता
वह काम बन गया होता
मैं पहुंच गया होता
ऐसे ही न जाने कितने काश!
आते रहते हैं जिंदगी में
जो कभी समाधान नहीं बनते

जाने दीजिए उन्हें
जो गुजर गया वह बीत गया
अमावस की रात मानकर
पूनम की ओर बढिये
एक-एक घड़ी बढ़ेगा उजाला
और आपकी रात भी पूरी चांदनी की होगी

उम्मीद ,भरोसा, गलतफहमी,
इंतजार ,अवसर
ये सारे निरर्थक शब्द है
आ गए तो नसीब अपने
नहीं तो भटकाव के रास्ते हैं

जो भी होगा हासिल
खुद के बलबूते ही होगा
रास्ता कभी नहीं चलता
पथिक के चलने से ही
भगत है दृश्य पीछे और हम
बढ़ते हैं आगे अपने मुकाम तक
सर्वथा यही सत्य और सार्थक भी है

प्रकृति

प्रकृति की छाया तले
होता अनुपम एहसास है
अकेले की तन्हाई में भी
लगता सब आस पास है

नदिया बहती कल कल
झरनों का शीतल जल
छूते नभ को गिरी देखो
होते मन को विवह्ल् देखो

झर झर पवन गीत सुनाते
हर पल्लव ज्यों संगीत बजाते
दूर दूर तक हो फैली आभा
समय साँझ की या हो प्रभा

बसता जीवन प्रकृति की गोद
मधुर मिलन आमोद प्रमोद
नारी जैसी क्या है प्रकृति की
अनमोल धरा पर माया प्रभु की

प्रकृति सुखद प्रकृति हि प्राण
वसुधा से अम्बर प्रकृति जान
सौ सौ बार नमन इस प्रकृति को
प्रकृति हि जीवन का अभिमान

आजमाइश

संभव, प्रोत्साहन, प्रेरणा
मे छिपे अनमोल भावों की
व्याख्या सरल नहीं
किसी शब्द से तुलना नहीं

आजमाकर देखिये कभी
साथ, समय, आर्थिक भले न दे सकें
इन्हे देकर देखिये कभी
प्रतिफल की कल्पना भी नहीं होगी

डूबते को मिले तिनके का मूल्य
बचा व्यक्ति चुका नहीं सकता
तिनका भी कईयों का बन जाता है प्राण दाता
अनुभव लेकर देखिये कभी

प्रेरणा के श्रोत हैं आप
व्यक्ति मे सर्वश्रेष्ठ हैं आप
खुद को भी पहचान कर तो देखिये
मानव बनकर तो देखिये कभी

भूलिए दुखद अतीत को
देखिये वर्तमान से भविष्य को
रात के संघर्ष से निकलकर
देखिये आते सूर्य को कभी

नदी से बूंद

शाखाओं से मिलकर हि
तना भी कहलाता है दरख़्त
अलग होकर तो दोनों हि
केवल ठूंठ कहे जाते हैं

कर लेते हैं इस्तेमाल लोग उसे
अपनी चाहत के जरिये मे
खूबी पेड़ की देती नहीं फल अब
ढल जाती है और की पसंद मे

घर से रिश्ते हों कमजोर
तो पड़ोसी बन जाते हैं अपने
दिखती नहीं जाल दानों के ऊपर
ऐसे में आप शिकार बन जाते हैं

सूरज रोशनी हि नहीं देता
देता है जीवन का दान भी
झुलसा दे बदन को भले
देता है कर्म का सम्मान भी

सागर की और बढ़ती नदी
बँटकर धाराओं में नाला बन जाती है
जुड़ी रही तो सागर कहलाती है
टुकड़ो मे हुयी तो बूंद बन जाती है

चाहत

मिलती नही चाहत कभी
चाहत को जाहिर किये बिना
माना कि मुमकिन नहीं मिलना उसका
पर व्यर्थ है जीना ख्वाहिशों के बिना

प्रेम होती नहीं बाजी जीत हार की
पाने की जगह हि नही इसमे.
बस होता है मिलन भावनाओं का.
तन नही मन के लगाव का नाम प्रेम है

खोजिये साथी कोई अपना
कह सको जिससे बात दिल की
घुटन तो मर्ज है एक जानलेवा
जीने भि नही देती मरने भि नहीं देती

अपाहिज न बनो सोच की अपने
रहे याद मंजिल भी अपनी
बाँट भी लो खुशियाँ प्यार की
सीमा भी बंधी रहे अपनी

हर हृदय कलुषित नही होता
हर निग़ाह दूषित नही होती
होता है निर्भर स्वयं की समझ पर
माना कि हर नदी गंगा नही होती

कोई बिरला तुमसा

मन की बातें रखना मन मे
शब्द न देना तुम उसको
समझ सके ना कोई दर्द हृदय का
समझ रहे तुम अपना किसको

एक अकेले तुम हि नहीं
सबके मन की पीड़ा अपनी
हो सकता है कोई भेद अलग
पर व्यथा सभी की है अपनी

देख रहा आकाश तुम्हें
तुम देख रहे क्यों धरती को
छूना है जाकर गगन तुम्हे
तुम बांध रहे क्यों कथनी को

कोई बात नहीं, कोई एक नहीं
सारा संसार तुम्हारी मंजिल है
कहना उसका उसके साथ रहे
साथ तुम्हारे कर्म तुम्हारा साहिल है

सौरभ सी है महक तुम्हारी
होगा कोई बिरला हि तुमसा
आँखें लाखों लगी हैं तुम पर
तुम देख रहे अब मुह किसका

श्रेष्ठता मे

आपका सहयोग वंदनीय है
किंतु, एक हि डोर पर्याप्त नहीं
जरूरतों को समेट पाने मे
एक हि रास्ता घर तक नही पहुँचता

मंजिल की पहुँच तक के लिए
रास्ते अन्य भी जरूरी हैं.
एक ही फुल की सुगंध से
बाग महका नहीं करते

किसी पर भी आपका
एकाधिकार नहीं, उसपर
विशेषाधिकार का होनाजरूरी है
नीव का पहला पत्थर हि अनमोल है

सोच मे विस्तार चाहिए
लगाव मे सहयोग चाहिए
साथ मे हि चलने की बाध्यता
निजी स्वार्थ कहलाती हैं

सागर को नदियों का जल चाहिते
मेघों सभी जल का श्रोत चाहिए
उड़ने को आकाश चाहिए
श्रेष्ठता मे देने को आशीर्वाद चाहिए

सगा

इस जमाने मे हुआ कौन किसका सगा है
हर किसी ने हि हर किसी को ठगा है

बहन भाई बाप माँ सभी का निजी स्वार्थ है
बनेगी बात कैसे, इसी ख्याल मे रतजगा है

रिश्ते प्रभु से भी रखे हैं मतलब के वास्ते.
करने को हल मसले, कोई दर दर भगा है

बोल मे घुली मिश्री, सोच मे नीम का रस मिला
गिराकर हि बढ़ने की होड़ मे, सारा जग लगा है

आज हि आज की है, सभी को पड़ी यहाँ
आज के खातिर ही, सभी ने सभी को ठगा है

आज का भरोसा क्या जो खड़ा अतीत के द्वार पर
देगा जो साथ अपना, वही तो कल का सगा है

वक्त

वक्त को मत तौलौ किसी के वक्त से
वह तुम्हे भी तौल लेगा तुम्हारे वक्त से.
रखता है ख्याल हर किसी के वक्त का
तौल लेगा तुम्हे भी तुम्हारे आज के वक्त से

वक्त सगा भी नहीं हमदर्द भी नहीं
वफा भी नहीं कोई बेवफाई भी नहीं
कर देता है दूध का दूध पानी का पानी
दरबार में उसके चलती सफाई नही

अमावस पूनम जैसे गतिक्रम् उसका
देता फल सबको देख कर श्रम उसका
चलता नहीं पक्षपात या दबदबा उसपर
स्वत्तंत्र प्रणाली से संचालित क्रम उसका

कर्म ही मूल है आपके निर्मित भाग्य का
धर्म युक्त कर्म ही मूल धर्म मानवता का
संयम, साहस, और व्यवहार कुशलता
करता जन्म सार्थक, हो पास विनम्रता

चला समझकर जिसने चाल वक्त की
वक्त ने भी रखा हरदम खुश हाल उसको
बदलता है रुख अपना वक्त अपने वक्तपर
संभला वही वक्त पर माना जिसने वक्त को

वास्तविकता

अपने ही साथ दें, यह जरूरी नहीं
गैर भी होते हैं बेहतर अपनों से
आपकी संगत का दर्जा ही
करता है निर्णय परिणाम का

रंग तो बाग के हर फुल मे हि है
खुशबु मगर किसी मे
दिखावे की चमक से कभी भी
घर रोशन नहीं होता

आपका व्यवहार और योग्यता ही
तय करती है गुणवत्ता आपकी
आपका वर्तमान ही
गढ़ता है आपके भविष्य को

गलत कोई नहीं होता
उसके सही गलत को बढ़ावा हम देते हैं
पानी कभी किसी की डुबोता नही
हमे ही तैरना नही आता

विष चंदन को प्रभावित नही करता
आप किससे क्या लेते हैं
और किसे क्या देते हैं
यही आपकी वास्तविक पहचान है

वक्त की बेक़दरी

वक्त टलता नहीं कभी
अपनी छाप छोड़े बिना
समझ लेता है वह हकीकत आपकी
बिन आपके कुछ कहे बिना

करता है आगाह जरूर
बेवफा कभी होता नहीं
बेक़दरी कर देते हैं आप उसकी
वक्त के लिए आप हीरे से कम नहीं

आता है वह समक्ष आपके
कभी व्यक्ति के रूप में
कभी उदाहरण के रूप में
आपको समझना है अर्थ मूल रूप में

प्रतीक ही बनते हैं साथी आपके
विवेक जरूरी है आपमें
चलकर किसी और की दिशा में.
भटक जाती है मंजिल आपकी

कौन जानता है भला
आपसे बेहतर आपको
अपने जिम्मेदार आप खुद हैं
गिरना भी संभलना भी आपको

निश्छल प्रेम

महज शब्दों की मिठास से हि
जायेगी न खटास मन की
मानवता की सोच होगी आत्मसात
तब हि कथा सफल जीवन की

ज्ञान भरा हुआ किताबों में
उपदेश धरा सबकी बातों में
समझना होगा जीवन दर्शन को
करना होगा चिंतन और आत्म मंथन को

ज्ञानी वही ज्ञान जिसका हो व्यवहार में
व्यापारी वही जो रहे व्यापार में
दुनिया है नश्वर सब माया जाल है
तब रहते ही क्यों हो संसार में

रहने का कोई तो प्रयोजन होगा
रहे जो विशेष उनका भी जीबन होगा
क्या समय आपका अलग होगा
या नियम परिणाम का अलग होगा

जुड़ाव की भावना हो प्रबल तुममे
नि:स्वार्थ की लगन हो तुममे
करनी कथनी निश्छल हो तुममे
बढ़ेगा तब ही प्रेम हृदय में

खुद बदलें तब

चाहते हैं यदि स्वच्छ भारत अपना भारत
तो कुछ बदलने से पहले
खुद को हि बदलना होगा
जाकर मतदान केंद्र पर
मतदान करना होगा

हो ली जंग बहुत राजनीतिक दलों की
रिश्वत, चुगलखोर, निठल्लों की
जंग अब व्यक्तिगत होनी है
बदलनी है मानसिकता अपनी
नव सोच विचार करना होगा
जाकर केंद्र पर मतदान करना होगा

होगा छोड़ना भाई भतीजा वाद
छोड़नी होगी जात पात की बात
बिना रुके बिना झुके
निर्णय खुद से लेना होगा
करे जो जनहित में काम
हमे बस उसी को चुनना होगा
जाकर केंद्र पर मतदान करना होगा

यह प्रश्न नही केवल आज का
निर्भर है भविष्य समाज का
हो न जाये कठिन देना उत्तर भविष्य को
निभाना है कर्तव्य स्वयं के लिए स्वयं को
कल के बच्चों का भविष्य बचाना होगा
जाकर केंद्र पर मतदान करना होगा
कुछ बदलने से पहले
खुद को बदलना होगा

मूल धर्म

सरल नहीं है
मानवता के धर्म को
व्यवहारिक जीवन में ला पाना
धर्म के नाम पर
व्यक्तिगत मान्यताएँ हि मान्य हैं

समुदाय हो, संगठन हो, पन्थ हो
सभी की अपनी अपनी
भिन्नता है, विचारों की
जबकि मानव तो सभी एक हैं
तब उनकी सत्यता अलग कैसे
निर्माता अलग कैसे

शृष्टि एक, प्रकृति एक
निर्माण विधि एक
मौसम एक, जल, वायु एक
तब नियंता भिन्न कैसे
इस भेद की व्याख्या अलग अलग कैसे

जाने किस भ्रम में उलझे हुए
सशंकित विश्वास की धारा में
स्वयं गोते खा रहे
कहाँ तक समझा पाएंगे आम जन जीवन की समझ को
क्या हो पायेगा स्थापित कभी
धर्म मानवता का जगत में

जहाँ सनातन नहीं मज हब नहीं
कोई अन्य सत्य की मान्यता नहीं
सिर्फ मानव की मानवता
मानव मे मानव की एकता
और मानव मे मानव की विश्वस्नियता हि मूल हो

मन की मानी

कर लो मन को वश मे, तो जीत पक्की है
समझ लो कच्ची सड़क की गली भी पक्की है

मोड़ के बाद तो मिलती ही हैं खाई और घाटी
ठान लो अगर मन में, तो कामयाबी पक्की है

मन की चंचलता हि, भटकाती है हमें राह से
चलते हैं जो सोच समझकर जीत उनकी पक्की है

हर लुभावनी चीज कर लेती है प्रभावित मन को
लेते हैं काम जो बुद्धि से, इज्जत उनकी पक्की है

मन ने हि बदले हैं इतिहास कई बार अतीत में
लेते नही सीख जो विगत से, हार उनकी पक्की है

मन ने समझा हि नहीं है, परिणाम कभी कल का
चला जो केवल आज देख,मौत उसकी पक्की है

मौका

सारी कलाएँ आपके भीतर
चुन लो कला अपने मन की
कर लो सार्थक जीवन अपना
भरोसा क्या है कल के तन की

आज ही आज है आपके नाम
कौन जाने कल भी हो या न हो
छू लो नभ, नाप लो धरती चाहे
कौन जाने कल ये मौका हो न हो

है प्रयास का मुहूर्त शुभ हरदम
लगन से हि हो लगाव हरदम
जीत होगी संकल्प के साथ ही
यूं तो होती रहेगी दिन रात हरदम

साथ जायेंगे पुराने ,नये आयेंगे
सिलसिला है ये चलता ही रहेगा
करना है सफर तय सोच से अपनी
सही गलत तो जमाना कहता रहेगा

जीत के बाद पहचानते हैं लोग
देखकर ही तुम्हे मानते हैं लोग
बेयकिनी हो गया है जमाना ये
अपने मतलब को हि मानते हैं लोग

नया संकल्प

जो खो गया वह आपका था हि नही
जो चला गया वह आपके लिए था हि नहीं
जो आपका होगा वह आपको मिल हि जायेगा
जो तुम्हे पाना है
उसी के लिए जीना है

मंजिल की दिशा तय करनी होगी
राह खुद की तुम्हे हि धरनी होगी
पहली ईंट का महत्व है मकान में
हर अंधेरे से लड़ना होगा
प्रभात तक चलना होगा

जो टूट जाये वो जुड़ता कहाँ है
जो छूट जाये वो मिलता कहाँ है
अतीत मे हि घूम रहे हो क्यों
अब तो आगे बढ़िये
कुछ तो करिये

कल को छोड़ नये कल से जुड़िये
हो रही नई हलचल से जुड़िये
मिल रहे नये संबल से जुड़िये
नया संकल्प लेना होगाया
तुम्हें चलना होगा

दांव पेच

( Dav Pech )

रह गई इंसानियत जबान पर
दिल मे तो मगर जहर भरा है
चल रहे कदम शराफत की राह
दिल में मगर फितूर हि भरा है

कहने और करने मे फर्क बहुत है
सोचने और दिखावे मे फर्क बहुत है
मिलते तो हैं दौड़कर गले अपना बन
दिल के भीतर मग़र जलन बहुत है

उतावले हैं खीचने को पैर नीचे की ओर
तैयार हैं धकेलने को हर ऊँचाई से
देते हैं सहयोग भी हमदर्दी भी रखते हैं
आस्तीन मे खंजर भी छिपाये रखते हैं

हवाले मे खाते हैं सौगंध भी रिश्तों की
कसम मे भगवान् को भी नही छोड़ते
देते भी हैं दिलाते भी हैं मिशाल औरों की
अपनी हि माँ बहन को भी घसीट लेते हैं

करते हैं जतन में बहुत कुछ मगर फिर भी
बेचारे खुद मे भी सुकून कहाँ ले पाते हैं
गुजर जाती है उम्र सारी दांव पेच चलाते ही
न देते हैं जीने, और न खुद हि जी पाते हैं

पीले पत्ते

( Peele Patte )

अब हम हुए शाख के पत्ते पीले।
रह पाएंगे और कब तक गीले
बस एक हवा के झोंके आना है
थोड़ी देर तू और भी सबर कर ले

दे चुके जो दे सके हम छाया अपनी
हमे भी तो है अपनी राह पकड़नी
हमारे कमियों की खता माफ करना
दुआ है हो बढ़त हमसे दुगनी, चौगुनी

समानता किसी से किसी की नही होती
हर किसी की मंजिल एक सी नहीं होती
करते हैं सभी प्रयास अपनी क्षमता से
सफलता सभी की एक सी नही होती

हम चाहे थे तुम हमसे आगे बढ़ो
तुमने चाहा तुम्हारे तुमसे आगे बढ़ें
दस्तूर यही है सभी के जिन्दगी का
चाहता नही कौन की उचाई ना चढें

इम्तिहान की कसौटी पर है हर कोई
मिलता है वही जो बोता है हर कोई
मिल हमे भी जो कर्म थे हमने किये
मिलेगा तुम्हे भी धर्म से जो तुमने किये

गुलबदन

( Gulbadan ) 

 

निभा लो आज भले ,रवैया तुम अजनबी
आयेंगे नजर हम भी कभी,यादों के पन्ने मे

आज हैं हमराज कई,आपके सफर मे
तन्हाई के आलम मे ,हमे ही याद कर लेना

जवां चांद की रात मे,सितारे जगमगाते हैं
उतरती चांदनी मे,तारे भी नजर नहीं आते

आज हो गुल बदन गुलजारे गुलशन मे
पतझड़ मे डालियां भी पहचानी नही जाती

उड़ लो ,आकाश की अनंत ऊंचाई मे आज
सिवा जमीन के आशियाना कहीं नहीं होता

हमे तो आदत है ,कर लेंगे बेवफाई भी सहन
आएंगी याद बातें हमारी,जब हम न होंगे

 

था भी हूं भी

( Tha bhi hoon bhi ) 

 

मान अपमान की चिंता नही
लोभ नही किसी सम्मान का
अंतिम स्वांस के पहले तक
करूं कर्म धर्म और इंसान का..

खुशियां जमाने की तुम्हे ही मुबारक
तुम्हे ही हर महफिल मे हार मिले
मेरे हर शब्द मे शामिल हो मानवता
फिक्र नही ,मिले जीत या हार मिले..

पहुंच नही पाया हजारों की भीड़ तक
चंद लोग भी लाखों हैं मेरे लिए
तनहा सफर मे ही चलता रहा हूं
करूं क्यों अभिमान मैं किसके लिए..

आया था हांथ खाली,कर्म खातिर
तमन्ना है की धर्म अपना निभा सकूं
जमाने से ही मिला यह जीवन मुझे
काश!इसके खातिर ही काम आ सकूं..

है विश्वास मुझे कर्म पर मेरे
आश्वस्त हूं कर्जदार नही रहा
दे रहा वाह मेरा नही,यहीं का रहा
मैं था भी हूं भी रहूंगा भी,यही मेरा रहा..

 

कल की सोच

( Kal ki soch )

 

भले जियो न जियो तुम धर्म के लिए
धर्म के साथ तो तुम्हे जीना ही होगा
अपनाओगे नही यदि तुम सतनातन को
निश्चित ही है की बेमौत तुम्हे मरना होगा

न आयेगी काम ये सारी दौलत तुम्हारी
न मोटर न गाड़ी न कोई ये साधन सारे
आ गई हुकूमत जब किसी गैर की द्वारे
बचाने को जान अपनी भागोगे मारे मारे

कोई कह रहा है सनातन एक रोग है
कोई कह रहा है राम ही काल्पनिक हैं
कोई कह रहा तुम्हे भगवा आतंकवादी
कोई कह रहा मजहब ही वैकल्पिक है

कानों मे तेल अभी आंखों मे मैल है
रहो खामोश,कुछ दिन का ही खेल है
सिखाता नही गलत,सनातन कभी
किंतु कहता जरूर है भूलें न कर्म कभी

बीत जायेगी तुम्हारी,कुछ बच्चों की सोचो
आज है आनंद का,जरा कल की भी सोचो
हम आज हैं ,होंगे जल्द ही अतीत के घेरे मे
पर,तुम न गंवाओ इसे महज सो लेने मे

 

अटूट बंधन

( Atoot bandhan )

 

अब तक भी न समझे तुम हमे
हम भी तुम्हे कहां तक समझ पाए
समझ मे ही गुजर गई उम्र सारी
न कुछ तुम, न कुछ हम कह पाए

अलग न तुम हुए, न हम दूर गए
न कह पाने की कशिश मे रह गए
चाहत न कम थी ,किसी की कहीं
लफ्जों मे बयां हम कर नही पाए

समझते रहे तुम,नासमझ हमे सदा
जानकर भी हम ही अनजान बने रहे
तुमसे ही तुम्हारी शिकायत भली लगी
होकर भी अलग,हम एक ही बने रहे

बातें बहुत थीं,शिकायतें भी बहुत थीं
करते भी क्या,हममें मुहब्बत बहुत थी
सहते रहे खामोशी मे रहकर सभी
दिलों मे मिलने की हसरत बहुत थी

अब तो,हर पड़ाव से हम,दूर चले आए
इच्छा नही,भावनाओं का ही आलिंगन है
होंगे कभी तो हम तुम भी ,संग अपने ही
यही तो जगती मे प्रेम का अटूट बंधन है।

 

सहारा

( Sahara ) 

सहारा भी जरूरी है हर किसी के लिए
उम्मीदें भी वाजिब हैं जिंदगी के लिए

भरोसे पर ही न बैठें पर,भूलकर भी कभी
कदमों मे जान भी जरूरी है चलने के लिए

बड़े ही बेवफा हैं लोग,तसल्ली भी धोखा है
रखते हैं खयालों मे,अपने मतलब के लिए

सहारे की चाहत में,सहारा कहां मिलता है
बना लेते हैं खुद का सहारा,वो अपने लिए

रखना संभलकर कदम,जमीन दलदली है
बिछाकर रखे हैं धोखे,तुम्हे गिराने के लिए

सहारा जो होता ,तो सहारे की जरूरत न थी
बना लेते हैं बेचारा वो,सहारा बनने के लिए

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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कुछ तो बोलो | Kuch to Bolo

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