सुबह तो होगी कभी | Subah to Hogi
सुबह तो होगी कभी !
( Subah to hogi kabhi )
मेरा भारत है महान, जग को बताएँगे,
इसकी जमहूरियत का परचम लहरायेंगे।
सबसे पहले लोकतंत्र,भारत ईजाद किया,
इस क्रम को और गरिमामयी बनाएंगे।
विशाल वट-वृक्ष तो ये बन ही चुका है,
करेंगे इसका सजदा,सर भी झुकायेँगे।
कभी-कभी छाता है घना इसपे कुहरा,
बन करके सूरज जड़ से मिटायेंगे।
न रहा वो तख्त-ए-ताऊस,न रहा राजतन्त्र,
लोकतंत्र में समान हिस्सा,सबको बताएँगे।
तौला नहीं जाता है इसमें आदमी,
प्रजातंत्र की खूबसूरती इसमें दिखाएँगे।
कभी-कभी सियासी पाटों में जनता है पिसती,
उसका भी तोड़ आगे निकालेंगे।
नया राग,नया साज वो खुद-ब-खुद बनाती,
ये गुफ़्तगू हम आगे बढ़ायेंगे।
दबाई न जाए,कहीं किसी मुफ़लिस की जुबां,
मजहबी सवालों में इसे न उलझायेंगे।
राम गए थे वन फिर वो लौटे अयोध्या,
गंगा-जमुनी तहजीब में फिर दिवाली मनायेंगे।
खो देती है दरिया कभी-कभी अपनी ही लहर,
खुश होकर डफली हम न बजायेंगे।
अमन-तरक्की का बनों तुम मसीहा,
पत्थर से फूल कब तक खिलायेंगे।
दिल की जमीं पे सुबह तो होगी कभी,
अतिरेक करनेवालों को आईना दिखाएँगे।
ये जिन्दगी है मगर इसका सफर है लंबा,
कतरा-कतरा जोड़कर समंदर बनायेंगे।
कोई गुजर करता हबेली, कोई झोंपड़ी में,
हासिए पे खड़े लोग भी तो पांव पसारेंगे।
कितना अल्फाज रोज बिक रहा लोगों का,
बिकने से बेशक़ जुबां हम बचायेंगे।
उड़ेगा तोता एक दिन पिंजड़े को तोड़कर,
खाली जमीं पे इक आशियाँ बनायेंगे।
कब तक काटेंगी मौजें किसी साहिल को,
हम तो एकदिन उसका पासबाँ बन जाएँगे।
पत्ते भी दरख्त को छोड़ देते हैं खिजाँ में,
मिलकर फूलों से नया बसंत बनायेंगे।
ख़ता तो हुई है तभी तो चेहरा है उदास,
स्विस-बैंक की चाबी-लॉकर दिखाएँगे।
रफ्ता -रफ्ता समय कट जाएगा ये भी,
जब डूबेगा सूरज, तभी तो सहर लाएंगे।
जख्म गिनना ये इतना आसान तो नहीं,
उन हक़ीमों को तब अपने साथ लाएंगे।
हम फकीरी में भी अमीरी का रखते जिगर,
अधरों पे किसी के न ताले लटकायेंगे।
झुकने न देंगें हिमालय का सर कभी,
उसकी हिफाजत में लहू ये बहायेंगे।
किसी नेक-नियति पे सवाल उठाने से अच्छा,
मिलके रास्ते का काँटा हटायेंगे।
बिछायेंगे फूल जिसपे जनता-जनार्दन चले,
छद्म लोगों से चमन को बचायेंगे।
कोमलता हमारी कोई कमजोरी नहीं,
उड़ते ख़्वाबों को जमीं उतारेंगे।
जो बेचते हैं नफरतों को गाँव या शहर में,
उन्हें तोप की सलामी कैसे दिलायेंगे?
फाख्ता उड़ती है तो उड़ने दो उन्मुक्त गगन,
हवा की राह न दीवार उठायेंगे।
महंगाई के बावजूद भी चाहते हैं लोग हँसना,
बहाना तो कहीं से ये ढूँढके लायेंगे।
लाख उठती रहें आँधियाँ कोई गम नहीं,
खिलने वाले फूल तो खिलते रहेंगे।
कलम से बड़ा तराजू कोई होता नहीं,
सरफ़रोशी की लौ हम तो जलायेंगे।
साहित्य होता है देखो, समाज का आईना,
वो प्रतिबिम्ब हम सबको दिखाएँगे।
खिड़कियाँ बंद कर लीं भले अपनी आँखें,
खुद्दारी की कलम ये तो चलायेंगे।
बढ़ रहा है चमन राजतन्त्र की तरफ,
हम तो कहकशाँ जमीं पे उतारेंगे।
एक सूरज से काम भाई चलता नहीं,
हर सितारे को आगे बढ़ायेंगे।
कोपभवन में ज्वालामुखियों की संख्या बढ़ी,
वक़्त आने पे तुझको आसमां बताएँगे।
महाशक्ति बनाना है मकसद मेरा,
बे -जुबां को जुबां वो दिलायेंगे।
लोकतंत्र की बुनियाद होता है संविधान,
जो सोए हैं , उनको जगायेंगे।
पूँजीपति और मीडिया सत्ताश्रित हो रहे,
देश के सामने ये मुद्दा उठायेंगे।
कलम तो होती है समाज की प्रहरी,
जमी उस काई को आईना देखायेंगे।
धोयेंगे विचारों को लोकतंत्र के साबुन से,
हम मिलके मजबूत राष्ट्र बनायेंगे।
मैं हूँ एक लेखक,कोई चारण तो नहीं,
राष्ट्र धर्म हम तो अपना निभाएँगे।
परिवर्तन कुदरत का है शाश्वत नियम,
उबड़-खाबड़ धूप में तपकर दिखाएँगे।
ऐशो-आराम से न जाने कितनों की बीत रही,
उन्हें कुछ पड़ी नहीं, कैसे जगायेंगे।
अपनी बात रखने का हक़ देता है संविधान,
सामने इसके माथा अपना झुकायेँगे।
पहले की सरकारों ने भी बहुत कुछ किया,
होती है चूक, वो भी बतायेंगे।
दिनोंदिन भूल रहे सामाजिक मूल्यों को,
पुराने संस्कारों का रंग फिर चढ़ायेंगे।
हजारों-हजारों किसान आत्महत्या कर चुके,
रहनुमाओं को कबाब कब तक खिलायेंगे।
सरकार है जिसकी जहाँ है सुनों,
कहो, आम जनता का मुद्दा उठायेंगे।
चींटी भी रहे जिन्दा और रहे हाथी भी जिन्दा,
हम तो पैमाना यही बनायेंगे।
सिस्टम से लड़ेंगे आखिरी साँस तक,
दागदार चेहरों से चमन बचायेंगे।
कई कीर्तिमान स्थापित की इस सरकार ने भी,
इसकी इच्छा-शक्ति को कैसे भुलाएँगे।
आओ बनें फिर से हम आसमानी बर्फ,
फिर नई निकले पहाड़ से नदी,तभी लोग नहाएंगे।
जो-जो पर्वत लोकशाही को रोकेगा,
उसे तो छैनी से हम काट डालेंगे।
होती हैं घायल फिजाएँ सौदेबाजी से,
सिंहासन तक बात बिलकुल पहुँचायेंगे।
लाशों की मंडी पे कोई करे तिजारत,
ऐसी सियासत से परदा उठायेंगे।
जिनके कर्मों से देखो,उठती है बदबू,
हवालत की उनको हवा खिलायेंगे।
शत -शत नमन है उन अमर शहीदों को,
इंकलाबी नारा घर -घर पहुँचायेंगे।
नदियों खून बहा मिली तब आजादी,
जी-जान से सोन-चिरैया बचायेंगे।
!!………….जय हिन्द………..!!
लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक )