अधीर | Adheer
अधीर
( Adheer )
बह जाने दो अश्रु को अपने
कुछ तो दिल के छालों को राहत मिलेगी
बातों के बोझ को भी क्या ढोना
कुछ तो सोचने की मोहलत मिलेगी
बांध रखा है फर्ज ने वजूद को
उसे खोकर भी जिंदा रहना नहीं है
अदायगी के कर्ज को चुकाना भी जरूरी है
पथ से तुझे आखिर तक भटकना नहीं है
माना के सब्र का बांध टूट ही जाता है
फिर भी रोक ले बहाव से खुद के घर को
बिखर जाएगा तेरे टूट जाने से
माली चमन से अलग नहीं होता कभी
लौट आते हैं परिंदों भी दूर गगन से
घोसले तो रहते हैं पेड़ पर ही
अभी नशा है दूर के नजारों का उन्हें
तेरी हर बात जाएगी सर स के ऊपर से ही
तेरी ही कलियां है महकने को आतुर हैं
कुछ देर ठहर धूप से कुछ तप जाने दे
आ जाएगी समझ भी उजाले के तपन की
हो न यूँ अधीर ,कुछ उन्हें भी उड़ जाने दे
( मुंबई )