संसार न होता | Kavita Sansar na Hota
संसार न होता….!
( Sansar na hota )
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।
हार न होती, जीत न होती,
सुख दु:ख का व्यापार न होता।
रोग-शोक-संताप न होता,
लगा पुण्य से पाप न होता।
क्यों छलकाते अश्रु नयन ये,
जो उर में परिताप न होता।
स्नेह स्वार्थ संयुक्त न होते,
कोई किसी पर भार न होता।
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।
नयनों से नयनों का मिलना,
शीत श्वांस, अन्तस्तल जलना।
तपती हुई चांदनी लगती,
तारे गिनना और तड़पना।
मनुहारों की चिता न जलती,
हुआ किसी से प्यार न होता।
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।
कांटों में ही फूल न खिलते,
जो अपनों से नहीं बिछुड़ते।
शूल न चुभते जो अंतर में,
व्यथा कथा हम कैसे कहते।
भरा पुरा यह सारा जग फिर,
केवल कारागार न होता।
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।
अपनों की अपनों से घातें,
कुलिश न बनकर लगती बातें।
जीवन को नीरस क्यों करते,
रोते दिवस, सिसकती रातें।
स्वप्न सुनहले, जो न टूटते,
जीवन यह असिधार न होता।
मन का चाहा, यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)