Kavita Sansar na Hota
Kavita Sansar na Hota

संसार न होता….!

( Sansar na hota )

 

मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।
हार न होती, जीत न होती,
सुख दु:ख का व्यापार न होता।

रोग-शोक-संताप न होता,
लगा पुण्य से पाप न होता।
क्यों छलकाते अश्रु नयन ये,
जो उर में परिताप न होता।

स्नेह स्वार्थ संयुक्त न होते,
कोई किसी पर भार न होता।
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।

नयनों से नयनों का मिलना,
शीत श्वांस, अन्तस्तल जलना।
तपती हुई चांदनी लगती,
तारे गिनना और तड़पना।

मनुहारों की चिता न जलती,
हुआ किसी से प्यार न होता।
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।

कांटों में ही फूल न खिलते,
जो अपनों से नहीं बिछुड़ते।
शूल न चुभते जो अंतर में,
व्यथा कथा हम कैसे कहते।

भरा पुरा यह सारा जग फिर,
केवल कारागार न होता।
मन का चाहा यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।

अपनों की अपनों से घातें,
कुलिश न बनकर लगती बातें।
जीवन को नीरस क्यों करते,
रोते दिवस, सिसकती रातें।

स्वप्न सुनहले, जो न टूटते,
जीवन यह असिधार न होता।
मन का चाहा, यदि मिल जाता,
तो फिर यह संसार न होता।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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