एड्रिएन रिच की अनुवादित कविता | अनुवादक- दीपक वोहरा
एड्रिएन रिच का जन्म 1929 में बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यू.एस.ए. में हुआ था। वह लगभग बीस काव्य संग्रहों की लेखिका हैं और उन्हें एक नारीवादी और क्रांतिकारी कवयित्री कहा जाता है।
पेड़ एक बिम्बों से सजी बहुत गहरी सिंबॉलिक कविता है। कवयित्री ने घर, पेड़ और जंगल तीन प्रतीक लिए हैं। घर समाज है, जहां स्त्री और पुरुष एक साथ रहना चाहिए। पेड़ सुंदरता, रमणीकता, मधुरता, छाया, आश्रय और पुनरुत्थान का सिंबल हैं। जंगल पुरुषों का सिंबल है।
पेड़
घर के अंदर के पेड़ बाहर जंगल की ओर बढ़ रहे हैं,
वो जंगल जो इन दिनों सूना पड़ा था
जहां कोई पक्षी नहीं बैठ सकता था
कोई कीट छिप नहीं सकता था
कोई सूरज अपने पैर छाया में नहीं छिपा सकता था
वो जंगल जो इन रातों तक खाली था
सुबह होते-होते पेड़ों से भर जाएगा।
सारी रात जड़ें काम करती रहीं
खुद को बरामदे के फर्श की दरारों से अलग करने में।
पत्तियां खिड़कियों के कांच की ओर खिंचती हैं
छोटी-छोटी टहनियाँ मेहनत से अकड़ जाती हैं
लंबे समय से जकड़ी हुई शाखाएँ छत के नीचे हिलती हैं
जैसे अभी अभी डिस्चार्ज हुआ मदहोश मरीज
क्लिनिक के दरवाजों की ओर चल रहा हो
मैं अंदर बैठी हूँ, दरवाजे बरामदे की ओर खुले हैं
लम्बी चौड़ी चिट्ठियां लिखते हुए
जिनमें मैं बमुश्किल से ही जिक्र करती हूँ
जंगल के घर से जाने का।
रात नई नई है, पूनम का चाँद चमक रहा है
उस आकाश में जो अभी अभी खुला है
पत्तियों और काई की महक
अब भी कमरे में आवाज़ की तरह पहुँचती है।
मेरा सिर सरगोशियों से भरा हुआ है
जो कल चुप हो जायेगा
सुनो! कांच टूट रहा है।
पेड़ लड़खड़ाते हुए रात में बढ़ रहे हैं
हवाएं उनसे मिलने के लिए दौड़ रही हैं।
चाँद टूट गया है, जैसे एक आईना,
इसके टुकड़े अब सबसे ऊँचे बलूत की चोटी में चमक रहे हैं।
दीपक वोहरा
(जनवादी लेखक संघ हरियाणा)
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