नई पीढ़ी को
अखबार नहीं भाते
पढ़ने से हैं कतराते
जाने क्या हो गया है इन्हें?
पढ़ना ही नहीं चाहते!
एक हम थे
पैसे भी नहीं थे
फिर भी
थी एक दीवानगी अखबार के प्रति
जो अहले सुबह चाय की दुकान तक
खींच ले जाती थी।
जहां लोग पहले से पढ़ रहे होते
पीछे उनके कई और लोग ताक झांक कर
पढ़ने में मशरूफ रहते।
मैं भी धीरे से जा पीछे कहीं लग जाता
दिक्कत दिखने में हो तो एड़ी अलगाता
पढ़ने लगता वही जो कुछ दिखता सही सही!
देश दुनिया का हाल
या फिर स्थानीय कोई समाचार।
कभी कभी छीन झपट भी होती
तो कभी फट भी जाती!
उफ! ये सस्ती क्यों नहीं आती?
जिसे सब खरीद पाते
जरा इत्मिनान से पढ़ पाते?
चाह ऐसी मन में उठती थी।
पर आज
जब पैसे हैं
नित्य अखबार भी खरीदते हैं
खुद ही पढ़ते हैं
बच्चों को जब कहते हैं
लो पढ़ लो अखबार!
लेकिन वो रूचि नहीं लेते
बाद में पढ़ेंगे पापा
कह कन्नी हैं काट लेते?
कोई दीवानगी नहीं दिखती
आंखें दिखाऊं तो
अनमने ढंग से हैं उठाते
थोड़ी ही देर बाद रख होते नौ दौ ग्यारे?
अजीब विडंबना है
आप सब का क्या कहना है?
क्यों आकर्षित नहीं करती?
नई पीढ़ी को अखबार
जिसके लिए हम सब रहते थे बेकरार।
क्या मोबाइल ने छीन लिया है?
या विश्वसनीयता इसने को दिया है?
शत-प्रतिशत तो नहीं कह सकते
हां ज़रूर कुछ बिक कर छपते हैं!
पर अधिकतर छपकर ही बिकते हैं
तभी तो हम जैसे लोग अभी भी पढ़ते हैं
खबरों से इतर छपी होतीं हैं ज्ञानवर्धक रचनाएं
खबरों को छोड़ें, इन्हें तो समझें समझाएं।
बेचारे अखबार वाले कितना मेहनत करते हैं
सुबह चार बजे ही बांटने चल पड़ते हैं
जब गिनती के बिकते हैं तो हो जाते हैं निराश,
बेकार न होने दें उनका प्रयास!
नई पीढ़ी को समझाएं,
महत्त्व अखबार का उन्हें बतलाएं।
है ज्ञान का महासागर,
पढ़कर चुन ले मोती-
भर ले अपने गागर!
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