देखो ! उसकी सादगी,
गीली मिट्टी से ईंट जो पाथ रही।
लिए दूधमुंहे को गोद में,
विचलित नहीं तनिक भी धूप में।
आंचल से ढंक बच्चे को बचा रही है,
रखी है चिपकाकर देह से-
ताकि लगे भूख प्यास तो सुकुन से पी सके!
खुद पाथे जा रही है।
दिनकर से न तनिक घबरा रही है,
न कोई छांव ही तलाश रही है।
पाषाण है तू क्या री?
बच्चे का इंतजाम कर संतुष्ट है बड़ी!
पाथे जा रही है,
बस पाथे ही जा रही है?
बचा खुद को भी!
अरी तू क्या कर रही है?
देखो आदित्य तेरे सिर मंडरा रहा है,
देख मेरा तो सिर चकरा रहा है।
घड़ी घड़ी ले रहा हूं आब की घूंट,
फिर भी गला जा रहा है पल में सूख।
तू किस चीज़ की बनी है,
लोहे की तो न लग रही है।
सजीव है,
हिल-डुल रही है;
मानो मुझसे कह रही है?
बाबू! मुझे जून की गर्मी नहीं-
दो जून की रोटी सताती है
इसलिए ये कड़ी धूप भी-
मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाती है।
गिनती करूंगी पूरी
तभी तो मिलेगी मज़दूरी?
वही बचाएगा,
रवि कुछ ना कर पाएगा;
मेरे जीजिविषा के आगे निस्तेज हो चित हो जाएगा।