
अज़ान
( Azaan )
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मोमिनों की शान
खुदा का फरमान
बुलावे की कलाम
होती पांच वक्त अज़ान।
जब हो जाए नमाज़-ए-वक्त,
मुअज्जिन लगाते-
आवाज़ -ए- हक़।
सुन नमाज़ी दौड़ पड़ते-
मस्जिदों की ओर,
कुछ नहीं भी पढ़ते दिखाकर अपनी बीमारी
कामों की फेहरिस्त और
व्यस्तताओं का हवाला दे करते हैं इग्नोर ।
अभी उम्र ही क्या है?
पढ़ेंगे ! शुरू करेंगे, कभी और !
जुमा को किसी तरह वक्त निकालते,
फर्ज पूरा कर लौट आते;
पुनः काम में लग जाते।
अब लाउडस्पीकरों से भी अज़ान है होती ,
दूर दूर तक आवाज़ें जातीं;
पर मस्जिदें खाली ही रह जातीं!
आधुनिकता की दौड़ में,
फैशन की होड़ में।
जींस टी-शर्ट पहने युवा-
तवज्जो न देते अज़ान की,
सुनते रहते हैं –
पर जरूरत न समझते नमाज़ की।
बच्चों पर फर्ज नहीं है
सो वो नहीं भी है जाते!
इस तरह कई-कई सफें खाली हैं रह जाते!!
लाउडस्पीकरों से दूर तक पहुंची आवाजें भी
बेअसर रह जातीं हैं
मस्जिदें खाली की खाली रह जातीं हैं।
अब तो जुमा, ईद, बकरीद में ही जुटते हैं-
हजारों में लोग,
गले मिलते, मिलाते हाथ
एक दूजे के लिए लिए नेक ख्वाहिशात मिलते बिछड़ते हैं लोग।
अगर प्रतिदिन सब मिलते रहते?
अज़ान की आवाज़ पर
नेकी और अल्ल्लाह को राजी करने दौड़ते,
सजदे करते।
दुआएं मांगते अमनो अमान की,
तो निश्चित ही नफरतें ना रहतीं,
इतनी ज़हान में,
नफरतों की कोई जगह नहीं,
अपने भारत महान में।
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।
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