बरसाती मेंढक!
बरसाती मेंढक!
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माह श्रावण शुरू होते ही-
दिखते टर्र टर्र करते,
जाने कहां से एकाएक प्रकट होते?
उधम मचाते,
उछल कूद करते।
कभी जल में तैरते,
कभी निकल सूखे पर हैं धूप सेंकते।
माह दो माह खूब होती इनकी धमाचौकड़ी,
लोल फुला फुला निकालते कर्कश ध्वनि।
इन्हें देख बच्चे खुश होते,
तो कभी हैं डरते।
उछलने पर अक्सर हैं ऐसा करते;
बाद बरसात ढ़ूंढ़ने पर भी नहीं ये मिलते।
जहां कहां चले हैं जाते?
किस लोक में जा छुप हैं जाते!
फिर अगले भादो में ही हैं आते,
ठीक इसी प्रकार चुनावी वर्ष में-
श्वेतवस्त्र धारी अपने नेता जी ऐसा हैं करते।
क्षेत्र में बढ़ जाती उनकी आवाजाही,
लोगों से मिलते, लूटते वाहवाही।
कभी कर जोड़ते,पग पकड़ते,
भाषण और आश्वासन देते;
भीड़ जुटाते बातें बनाते।
साथ खड़े हैं पल पल,
ऐसा हैं जताते,
गरीब, दलित को गले लगाते।
साथ पंगत में बैठ खाना हैं खाते,
चिकनी-चुपडी बातों से उन्हें रिझाते;
अपने पक्ष में मतदान को उन्हें मनाते।
चुनावी तिथि तक खूब करते सेवा का नाटक,
जीतते ही बंद कर लेते अपने घर के फाटक।
जनता को दिखाते अपनी असली ताकत,
वह सेवा था क्षणिक और नाटक;
यही आजकल के राजनीतिज्ञों की है हकीकत।
मानों हों बरसाती मेंढक!
?
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।