भारतीय संस्कृति | Bhartiya Sanskriti par Kavita
भारतीय संस्कृति!
( Bhartiya Sanskriti )
अपने हाथों अपनी संस्कृति मिटा रहे हैं लोग,
जिसे देखा ही नहीं उसे खुदा कह रहे हैं लोग।
पहुँचाना तो था अंतिम साँस को मोक्ष के द्वार,
संस्कारों से देखो फासला बढ़ा रहे हैं लोग।
दधीचि की अस्थियों से ही देवता बनाए थे वज्र,
आखिर क्यों बाल्मीक बनना छोड़ रहे हैं लोग।
सपने में राजा हरिश्चंद्र राजपाट किए थे दान,
क्यों सरकारी खजाने का गला घोंट रहे हैं लोग।
नदियों खून बहा था तब हुआ था देश आजाद,
धर्म के नाम पर उल्टी गंगा बहा रहे हैं लोग।
मिट्टी का शरीर मिल जाएगा एकदिन मिट्टी में,
सोने-चाँदी में क्यों इसको ढाल रहे हैं लोग।
मत जलाओ कोई मूल्यों को फैशन के अलाव में,
आधुनिकता में अश्लीलता परोस रहे हैं लोग।
शहद के जैसा इसे चाटना चाहते हैं विदेशी,
लेकिन अपने ही घर को कुछ फूँक रहे हैं लोग।
लहू और पानी को छान देती है हमारी संस्कृति,
अपनी ही प्यास को कहीं और बुझा रहे हैं लोग।
नहीं है सुगंध कोई देखो पाश्चात्य संस्कृति में,
अपनी गमकती फिजा में खिजाँ ला रहे हैं लोग।
काँटा बोने से फूल कभी न उगेगा देख लेना,
बिना दिल के तराजू के दिल तौल रहे हैं लोग।
मौत का भी है इलाज हमारी इस संस्कृति में,
नजरअंदाज सती सावित्री को कर रहे हैं लोग।
यह भी पढ़ें:-