Dhara
Dhara

धारा

( Dhara ) 

 

कोशिश न करिए किसी को तौलने की
उसकी हुलिए या हालात को देखकर
वक्त की दबिश मे चल रहे हैं सभी
सूरज भी कभी पूरब तो कभी रहता है पश्चिम…

ठीक है की आज आप कहां हैं
यह मत देखिए की कौन कहां है
हमने देखे हैं कई महलों को भी
खंडहर मे तब्दील होते हुए…

रहता है आदमी वही
बदलते रहते हैं रंग हर मोड़ पर
बचपन से बुढ़ापे तक रही न शरीर भी आपकी वही
तब आपकी सोच का वजूद ही क्या है….

चलो तो साथी बनकर चलो
साथ लेने की ख्वाहिश मे
रिश्ते टूट जाते हैं
आज जो चल रहे हैं साथ आपके
कल वो भी आपसे छूट जाते हैं….

जमीन के साथ जुड़े रहिए
आंधियों का भरोसा क्या
बहती हुई धारा है वक्त की
रुकती नही कभी….

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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