दो सहेली | Do Saheli
“दो सहेली”
( Do Saheli )
जेठ की दुपहरिया सबको खल रही थी,
तेज धूप के साथ गर्म हवाएं चल रही थी।
दो लड़कियां बातें करते हुए जा रही थी,
एक दूजे को प्यार के किस्से सुना रही थी।
उनमें से एक मेरी गाड़ी से थी टकराई,
मेरे पास आकर बड़े जोर से चिल्लाई।
दिखने में तो लग रही थी कितनी भोली,
मैं कुछ बोल पाता उससे पहले वो बोली।
भैया लगता है आपको दिखाई कम देता है,
या आपको गाड़ी चलाना ही नहीं आता है।
दिन में भी लगता है जैसे सपने देखते हो,
अपनी गाड़ी से लोगों को आप ठोकते हो?
आश्चर्य चकित हो गया मैं यह बात सुनकर,
गुस्से से देखने लगा मैं उनको घूर घूर कर।
सोचने वाली बात ये थी गाड़ी बंद पड़ी थी,
मैं गाड़ी के अंदर था वो साइड में खड़ी थी!
बंद गाड़ी कैसे टक्कर मार सकती है,
ये बात आपको समझ में नहीं आती है।
गलती का एहसास होने पर वो घबरा गई,
मुस्कुरा कर देखने लगी बाद में शर्मा गई।
मुस्कुराहट का भी जब असर नहीं हुआ,
आँखों से नदी बहाना उसने शुरू किया।
उसकी गलती पर भी मैं सॉरी कह रहा था,
उनसे उलझने पर खुद को कोस रहा था।
तब से लड़कियों से दूरी बनाकर रखता हूँ,
गाड़ी भी अपनी उनसे कोसों दूर रखता हूँ।
कवि : सुमित मानधना ‘गौरव’
सूरत ( गुजरात )
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