पीड़ित मानवता के सच्चे सपूत : डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी

मानव पीड़ा को जिसने भी अपनी पीड़ा समझ उसके दुखों को कम करने का प्रयास किया उनमें डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रमुख थें । वास्तव में दूसरों के दुःखों को कम करना ही मानव धर्म है ।

संसार में अपने स्वार्थ के लिए तो सभी जीते हैं परंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका जन्म ही दूसरों के दुःखों को दूर करने के लिए होता है ।इन्हीं लोगों को संत, महात्मा, शहीद, देवदूत आदि नामों से सुशोभित किया जाता रहा है ।

अन्य जीवों के बच्चे जहां जन्म के बाद ही अपने पैरों पर चलने लगते हैं ।उन्हें ज्यादा किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं रहती । वही मनुष्य को अनेकों लोग के सहयोग के बिना जीवित रहना मुश्किल है । जब वह अपने हाथ पैरों पर खड़ा हो जाता है तो उसका भी कर्तव्य है कि समाज के उपकार का बदला चुकाएं।

6 जुलाई, 1910 को आशुतोष मुखर्जी के घर जन्मे बालक श्यामा प्रसाद को बचपन से ही पीड़ित मानवता की सेवा के संस्कार मिले थे । घर परिवार का संस्कार बच्चों में पड़े बिना नहीं रह सकता ।

यदि उचित खाद पानी मिले तो उसे फलने-फूलने में देर नहीं लगती। श्यामा प्रसाद को यह खाद पानी उनके माता-पिता ने स्वयं के आचरणों से ही सिखा दिया था।

बच्चों को नीतिगत बातों की अपेक्षा यदि आचरणों से सीख दी जाए तो बच्चे सहज उस ओर आकर्षित होते हैं । आज जो बच्चों में इतना शारीरिक रूप से पतन हो रहा है उसके जिम्मेदार हमारे अभिभावक स्वयं हैं।

एक बार जब वे मैट्रिक कक्षा में ही थे देखा कि उनका एक साथी पैसे के अभाव में परीक्षा नहीं दे रहा है । वे परिवार से आर्थिक रूप से संपन्न थे । उन्होंने उसकी भरपूर सहायता की ।

फॉर्म भरने में लेट हो जाने पर भी प्रधानाध्यापक से मिलकर फीस जमा कराई और उसे परीक्षा में शामिल होने की अनुमति मिल गई। ऐसी थी उनकी परदु:खकातरता की भावना जो बचपन में बीज रूप में जन्म लेकर वही बाद में बट वृक्ष का रूप धारण की।

यदि हमारे पास आवश्यकता से अधिक धन है तो उसको मौज मस्ती में खर्च करने की अपेक्षा दीन दुखियों की सेवा में खर्च करना चाहिए। हो सकता है आपके थोड़े से प्रयास से किसी का जीवन बदल जाए।

ऐसे ही जब सन् 1942 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा तो उनकी आत्मा परदु:खकातरता से चीत्कार उठी। सरकार ने कोई सहायता करने की अपेक्षा यहां तक की पत्रों में अकाल के समाचारों का प्रकाशन भी रुकवा दिया ।

अंग्रेजों की निष्ठुरता उनसे सहन नहीं हुई । उन्होंने रामकृष्ण मिशन सोसाइटी आदि के माध्यम से पीड़ितों की भरपूर सहायता की। देशभर में घूम-घूम कर भरपूर चंदा इकट्ठा किया एवं लोगों को भूखे मरने से बचाया।

प्रायः यह देखा जाता है कि अमीर घरों के लड़के जहां गंदी सोहबत से बिगड़ जाते हैं । अपने शौक मौज में पानी की तरह पैसे फूंकना उनका स्वभाव बन जाता है। कभी-कभी गंदी सोहबत में फंसकर नशेबाजी भी करने लगते हैं ।

वहीं श्यामा प्रसाद मुखर्जी इन सबसे दूर ही रहे। वे प्रथम श्रेणी में एम . ए. करने के पश्चात विदेश चले गए । उनकी गणित में विशेष रूचि थी। जिससे प्रभावित होकर उन्हें लंदन के मैथमेटिकल सोसाइटी का सदस्य बनाया गया था।

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है कि उपवन में जब पुष्प खिलता है तो उसका सुगंध उपवन तक ही सीमित नहीं रहती जन-जन को भी उसकी सुगंध मिलती है ।

श्यामा प्रसाद रुपी पुष्प जब खिलने लगा तो उसकी सुगंध चारों दिशाओं में फैले बिना नहीं रह सकीं । इंग्लैंड से लौटने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिभा को भारत मां के चरणों में समर्पित करने का संकल्प लिया ।

निजी स्वार्थ का विचार कभी उनके दिमाग में आया ही नहीं । मात्र 24 वर्ष में वे कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेट के सदस्य बनाए गए । बाद में उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने विश्वविद्यालय की प्रगति में अभूतपूर्व सहयोग दिया।

अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव से क्षेत्रीय भाषाओं की कमर टूटने लगी थी । क्षेत्रीय भाषाएं जैसे मृतप्राय सी हो गई थी। उन्होंने बांग्ला भाषा को समृद्ध करने के लिए अथक परिश्रम किया ।बांग्ला भाषा का शब्दकोश तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो आज भी लाखों बंगालियों के लिए मील का पत्थर साबित हो रही है ।

हिंदी भाषा की प्रगति में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वे केवल बंगाल तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि पांडिचेरी के अरविंद विश्व विद्यालय की स्थापना में भी पूरा सहयोग दिया।

देश के बंटवारे के पश्चात पूरे देश में खून की नदियां बहने लगी । चारों ओर लाशों का ढेर लग गया । गांधी जी ने कहा था कि मेरी लाश के ऊपर ही भारत के दो टुकड़े होंगे परंतु उनकी किसी ने एक न सुनी।

बंटवारे में शामिल राजनेताओं को भी आभास नहीं था कि इस प्रकार से खून की नदियां बहेंगी । श्यामा प्रसाद ऐसी मार काट देख रो पड़े । विभाजन के इस दुष्परिणामों ने उन्हें खुलकर मैदान में आने के लिए विवश कर दिया।

नेताओं ने सदा से ही अपने निजी स्वार्थ के कारण जनता को मौत के मुंह में डालने से बाज नहीं आए । संसार में इतने दंगे फसाद होते हैं, परंतु आज तक कोई राजनेता मरा हो, ऐसा सुनाई नहीं पड़ता।

सदियों से हिंदू मुसलमान एकता की बात करने वालों ने ही निजी स्वार्थ के लिए ऐसी आग भड़काई की आज भी वह एक दूसरे के दिलों में कटुता का बीज बनकर जल रहा है।

संसार का कोई धर्म दूसरे धर्म वालों से लड़ना झगड़ना नहीं सिखाता परंतु धर्म के नाम पर जितने कत्लेआम हुए उतने तो अकाल दुर्भिक्ष में भी लोग नहीं मरे होंगे।

कश्मीर के शासक शेख़ अब्दुल्ला कश्मीर को अपने कब्जे लेना चाहता था और 14 दिसंबर 1953 को उसने जम्मू के राजकीय भवन में अपना झंडा भी फहरा दिया। इस समाचार से डॉक्टर मुखर्जी कांप उठे। उन्होंने इसके खिलाफ दोनों लोगों प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं शेख अब्दुल्ला को पत्र लिखा ।

कोई सार्थक उत्तर न मिलने के कारण सत्याग्रह कर दिया। जिसके कारण उन्हें जेल में डाल दिया गया । यही 23 जून 1953 को इस मानवता प्रेमी का रहस्यमय परिस्थितियों में उनका देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है।

वर्तमान भाजपा जो की पूर्व मे जनसंघ थी इसके संस्थापक सदस्य एवं अध्यक्ष डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे को चाहिए कि उनकी मृत्यु के रहस्य से पर्दा उठाएं।

देश के कर्णधार पृष्ठ १६८-१७०

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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