आशा की काँवड़ | Geet Asha ki Kavad
आशा की काँवड़
( Asha ki Kavad )
चढ़ी रही आशा की काँवड़ ,
झुके हुए इन कंधों पर .
हरियाली कुर्बान रही बस,
कुछ सावन के अंधों पर .
पाँवों को पथरीले पथ ने ,
दिए सदा मारक छाले .
क्रूर काल ने क्षुधित उदर को ,
भी , गिनकर दिए निवाले .
फूलों ने भी आज लगा दी ,
कैसी रोक सुगंधों पर .
छलक गया था राहों में ही ,
हर कोशिश का गंगाजल .
आड़ लिए वो धर्म कर्म की ,
खोज रहे मसले का हल .
मौन खड़े हैं क्या बोलें हम ,
उनके गोरखधंधों पर .
तनातनी थी यूँ रिश्तों में ,
बात न आगे बढ़ा सके .
सूख गई थीं मन की आँखें ,
अश्रुजल भी ना चढ़ा सके .
गौहर कैसे मिलता हम तो ,
खड़े रहे तटबंधों पर .
राजपाल सिंह गुलिया
झज्जर , ( हरियाणा )