दिखती नहीं | Ghazal Dikhti Nahi
दिखती नहीं
( Ghazal Dikhti Nahi )
ग़ालिबन उनके महल से झोपड़ी दिखती नहीं I
इसलिए उनको शहर की मुफ़लिसी दिखती नहीं II
लाज़िमी शिकवे शिकायत, ग़ौर तो फरमा ज़रा I
आख़िरश उनकी तुम्हे क्यों बेबसी दिखती नहीं I
पेट ख़ाली शख्त जेबें पैरहन पैबंद तर I
फिर उसे संसार में कुछ दिलकशी दिखती नहीं II
रूह घायल तोहमत-ओ-इल्जाम से महबूब के I
इश्क दीवानी उसे कोई कमी दिखती नहीं II
हो गया दरकार अब रंगीनियाँ-ए-शख़्सियात I
जगमगाती रौशनी में सादगी दिखती नहीं II
ऐनक-ए-जज़्बात से माँ देखती औलाद को I
ऐब सारे, गलतियाँ तो ही कभी दिखती नहीं II
ओढ़ लो मुस्कान कर के दफ़्न जख्मों को अभी I
मस्त दुनिया है उसे अफ़्सुर्दगी दिखती नहीं II
सुमन सिंह ‘याशी’
वास्को डा गामा, ( गोवा )
शब्द
ग़ालिबन= संभवतः, कदाचित, शायद
मुफ़लिसी= ग़रीबी, निर्धनता
आख़िरश= अंततः, अंततोगत्वा, आख़िर, आख़िरकार
पैरहन=पोशाक, वस्त्र, पहनने का कुरता
दिलकशी= attraction
दरकार= जिसकी अपेक्षा या आवश्यकता हो, आवश्यकता, अपेक्षित, जो चीज़ चाहिए हो
शख़्सियात= शख्सियत ( व्यक्तितव) बहु वचन
अफ़्सुर्दगी= state of melancholy, उदासी