Ghazal Mere Shehar ki
Ghazal Mere Shehar ki

मेरे शहर की नदी जो धार्मिक हो गई

( Mere Shehar ki Nadi jo Dharmik Ho Gai ) 

 

प्यास की कहानी और मार्मिक हो गई,
मेरे शहर की नदी जो धार्मिक हो गई।

फरेब भी निठल्ली नहीं है आजकल,
वो सियासत के महल में कार्मिक हो गई।

चेहरे की रंगत तो बदली नहीं अभी तक,
कौन कहता है कि खुशी हार्दिक हो गई।

मुक़दमे की मुझे जानकारी नहीं है मगर,
बात-बात में ही बहस तार्किक हो गई।

कह रहा है चीख कर सर्दियों का खुलूस,
नवम्बर गया और माहे कार्तिक हो गई।

लोग सीख रहे हैं पन्द्रह लाख के सिफ़र,
उन्हें मालूम नहीं, परीक्षा वार्षिक हो गई।

मुल्क में जो बढ़ गई, ज्यादा बेरोज़गारी,
ज़फ़र, तार तार स्थिति आर्थिक हो गई।

ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413, कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली -32
[email protected]

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