गिले-शिकवे की रीत
गिले-शिकवे की रीत
पहर-दर-पहर वो मुझे शिद्दत से याद आते रहे, वो क्या जाने ये
चांँद-सितारे किस कदर उनकी यादों के नश्तर मेरे सीने में चुभाते रहे,
बहुत चाहा था कि भूल जाएं उस बेवफ़ा को, मगर ख़्याल उनके दिल
से निकलते ही नहीं, बनाकर आशियाना इस कदर वो दिल में हलचल मचाते रहे,
शब-ए-हिज्रा में जब हम तकते हुए राह उनकी खुद से ही खुद
मुलाकात करते रहे, वो बेवफ़ा गैरों की ख़्वाबगाह में इतराते रहे,
मिली थी जो तुमसे कभी इत्तेफ़ाक से मोहब्बत, समझ कर उसे
तेरी इनायत, हम हैं खुशनसीब ये अपने दिल को समझाते रहे,
लो अब तोड़ कर रिश्ता-ए-उम्मीद हम भी तुम्हारे ही रंग में रंग गए,
नहीं करते अब गिले-शिकवे किसी से, खुद से ही गिले-शिकवे की रीत निभाते रहे,
प्रेम बजाज © ®
जगाधरी ( यमुनानगर )
पहर-दर-पहर – ( दिन रात)
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