गुरुर | Gurur
गुरुर
( Gurur )
( 2 )
समझ ले कोई प्रेम को
हर किसी के वश की बात नही
मित्रता मे भी कृष्ण जैसी
सुदामा से कोई मुलाकात नही…
महज ,प्रेम को ही प्रेम कह देना
ये तो सांसारिक दिखावा है
यादों की तड़प मे दिल रहे मगरुर
यही तो गर्व से कहने का दावा है…
करो न मुझसे मित्रता की बातें
हमने गुजारे हैं दिन कई रातें
किए नही इजहार किसी मतलब का
कर न सके तुम तो चंद बातें…
जाने है,किस बात का गुरुर उन्हे
एहसास मे भी अल्फाज होते हैं
जरूरी नही बंधे हों हाथ हाथों मे
तब भी , दिले सुकून आगाज होते हैं…
करते हैं रोज ही गिले शिकवे वो
शामिल हुए नही दर्द मे कभी
भले , नाज हो उन्हे अपने हुनर का
हम भी न करेंगे अब याद कभी….
( 1 )
किताबें सिखाती हों भले
जीने का तरीका जिंदगी मे
पर,परिवार से मिले संस्कार ही
सिखाते हैं सलीका जीवन का…..
सोहबत का असर रहता है साथ उम्रभर
और उसकी गिरफ्त मे कैद
अपनी ही काबिलियत को
पहुंचा नही पाते अंजाम तक..
हुनर का सुरूर हो जाता है हावी
गुरुर मे हम आगे बढ़ नही पाते
जहां कर सकते थे फतह किले को
वहीं चार सीढियां भी चढ़ नही पाते…
अकड़ कर देती है खत्म विनम्रता
बदल जाते हैं मायने जिंदगी के
जमीर भुला देता है सलीका जिंदगी का
रह जाते हैं सिमटकर अपने ही दायरे मे..
न मिल पाता है साथ हमसफर का
न बन पाता है हमदर्द कोई
न मिलता है साथ दुआओं का कभी
न हो पाते हैं कामयाब हम उम्रभर…
( मुंबई )