हालाते जिंदगी | Halat-E-Zindagi
हालाते जिंदगी
( Halat-E-Zindagi )
अचानक एक ख़्याल ने,
हमें अपने में बांध लिया।
ताने-बाने बुनती जिजिविकाओं,
ज़िंदगी के हालातो से
रूबरू कराने के प्रयास ने हमें,
उस मोड़ पर
न जाने कितने बरसों
पीछे ले जाकर छोड़ दिया।
और फिर हां फिर
एक-एक चेहरा
शतरंज के मोहरे सा
मानस पटल पर अपनी,
मौजूदगी स्थापित करने की,
होड़ में शामिल,
होने स्वयं को
बाध्य करने लगा।।
गिनाये जाते नहीं,
उंगलियों में नाम
उन लोगों के हां उन लोगों के
जिन्होंने——–
मुझे जन्म लेते देखा
मेरा बचपन, जवानी
और
बढ़ती उम्र की
रवानी भी देखी।
वक्त के मेरे हर उतार-चढ़ाव को
भी देखा
प्रीत की गलियां
साजन का अंगना
ममत्व से ओत-प्रोत
मेरी ममता —— भी।
और फिर वही लोग
जो बच चुके होंगे
अपनी ज़िंदगी की
बाकी सांसों को पूरा करने से।
शायद हांशायद
मेरे चेहरे की झुर्रियां,
बालों का चांदी सा चमकता
किसी बीमारी से
शरीर का दुर्लभ होना भी देखेंगे
और फिर——
अंत में मेरी मौत?
यह मृत्यु कभी भी
किसी भी उम्रकी
मोहताज नहीं।
कभी भी आ सकती है।
इसको भी देखेंगे,
पर हां पर देखो जरा
समझो जरा
कि
इस जन्म से मृत्यु के बीच
का जो दौर रहा
उसमें मेरी स्वयं की,
अधूरी ख़्वाहिशें, नाकाम हसरतें
तमन्नाओं आरजूओं जनाजा,
दर्द ओ ग़म ,तनहाई,
का था —–
वो सब तो बयान के बाहर है।
या ये सब किसी को समझा
ही नहीं
यह किसी ने समझना ही नहीं चाहा
या फिर जानकर अन्जान बने सब,
ज़िंदगी के हर रिश्तों के,
मायन सबने समझाएं,
पर हक़ीक़त, पर सबने
पर्दा ही पड़ा रहने दिया,
हालाते जिंदगी कैसे गुजारी,
ये ना जान पाया कोई।
ये ना समझ पाया कोई।।
डॉ. प्रियंका सोनी “प्रीत”
जलगांव
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