उन्हीं पर हक़ नहीं अब तो हमारा

( Unhi par haq nahin ab to hamara ) 

 

यहाँ सब आइने टूटे हुए हैं
ख़ुदी में लोग यूँ डूबे हुए हैं

अभी उतरी नहीं शायद ख़ुमारी
जो अपने आप में खोये हुए हैं

बहारों का करें क्या ख़ैर मक़दम
वो अपने आपसे रूठे हुए हैं

उन्हीं पर हक़ नहीं अब तो हमारा
जिन्हें हम पाल कर बूढ़े हुए हैं

बड़े सौदागरों की चाल से ही
हमारी जेब पर डाके हुए हैं

यक़ीं उठने लगा चारागरों से
शफ़ाख़ाने भी अब कोठे हुए

जो लीडर मिल गये सौदागरों से
उन्हें हम रहनुमा माने हुए हैं

सुनेगा कौन अब फ़रियाद साग़र
यहांँ के हुक्मराँ बहरे हुए हैं

कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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