हकीकत | Haqeeqat

हकीकत

( Haqeeqat )

 

सजाने लगे हैं घर, फूल कागज के
अब किसी भी चमन में रवानी नही है

बुझे बुझे से हैं जज्बात दिलों के सभी
अब किसी भी दिलों में जवानी नहीं है

बन गया है शौक, खेल मुहब्बत का
भीतर किसी को दिली लगाव नहीं है

इल्म भी वफा के अब बेवफा हो गए
कह दी बात उल्फत की तो खफा हो गए

चाहत बदल जाती है, फटे कपड़ों की तरह
हो गई है हकीकत फटे, चिथड़ों की तरह

करें गुमान भी अब, किसकी वफादारी पर
बिकने लगे हैं दिल भी अब, खरिद्दारी पर

ऐ दिल! मिल भी जाय साथ तो, रूह में तन्हाई है
ऐ खुदा! क्या तूने ही ये दुनिया बनाई है!!!!

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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