हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है | Ghazal dil ke talabgar
हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है
( Hum jism -o -jaan se dil ke talabgar )
खुसबू से पीछा छुड़ाने को बागों में टहलते है
पस-ए-पर्दा आँखों का हम भी समझते है
ज़िन्दगी फ़क़त कुछ दिनों के यूँ ही गुजर जाएगा
चलो बैठ कर कहीं इसको गुज़रते देखते है
हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है
अदब नहीं आता, सिर्फ तज़र्बा को अलफ़ाज़ में बदलते है
हमे समझ आता नहीं है ये इल्म-ए-अरूज़
अपनी अंदाज़ में जो देखा, जो जाना सो कहते है
तुमने सुना होगा शेर बहोत बड़े हस्तियों से
देखा है हमने ये हुनर-ए-अंदाज़ खुद-ब-खुद उभरते है
हमे पता है इस सफर का रस्ता और हक़ीक़त भी
उम्र भर रह नहीं सकते, फ़क़त इसीलिए चलते है
‘अनंत’ ये सेहर-ए-सुख़न हर जाबिये से बहोत अच्छा है
चलो इसी बहाने खुद से नफरत कर गुस्सा निकालते है
शायर: स्वामी ध्यान अनंता