हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है
हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है

हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है

( Hum jism -o -jaan se dil ke talabgar )

 

खुसबू से पीछा छुड़ाने को बागों में टहलते है

पस-ए-पर्दा आँखों का हम भी समझते है

 

ज़िन्दगी फ़क़त कुछ दिनों के यूँ ही गुजर जाएगा

चलो बैठ कर कहीं इसको गुज़रते देखते है

 

हम जिस्म-ओ-जान से दिल के तलबगार है

अदब नहीं आता, सिर्फ तज़र्बा को अलफ़ाज़ में बदलते है

 

हमे समझ आता नहीं है ये इल्म-ए-अरूज़

अपनी अंदाज़ में जो देखा, जो जाना सो कहते है

 

तुमने सुना होगा शेर बहोत बड़े हस्तियों से

देखा है हमने ये हुनर-ए-अंदाज़ खुद-ब-खुद उभरते है

 

हमे पता है इस सफर का रस्ता और हक़ीक़त भी

उम्र भर रह नहीं सकते, फ़क़त इसीलिए चलते है

 

‘अनंत’ ये सेहर-ए-सुख़न हर जाबिये से बहोत अच्छा है

चलो इसी बहाने खुद से नफरत कर गुस्सा निकालते है

 

शायर: स्वामी ध्यान अनंता

 

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