जीवन और मृत्यु | Jeevan aur Mrityu
….जीवन और मृत्यु….
( Jeevan aur mrityu )
जन्म और मृत्यु के मध्य ही तो संसार है
यह उक्ति ही सर्वथा निराधार है
वर्तमान तो अतीत के प्रारब्ध का सार है
इसमें का कर्म ही भविष्य का द्वार है…
लिप्त हो जाना ही लुप्त हो जाना है
मोह मे फंसना ही उलझ जाना है
स्वार्थ तो है बंधन झाड़ियों जैसा
डूबकर भी और डूबते ही जाना है…
जरूरी है घर परिवार का होना
जरूरी है घर परिवार के लिए होना
जरूरी नही परिवार के लिए ही हो जाना
जरूरी है स्वयं के जन्म को भी समझना…
अकेले ही है नही आपका होना
अनेकों से ही संभव हुआ है आपका होना
आपका उत्तरदायित्व भी है तब समाज पर
खुद के लिए ही जीने से अच्छा है मर जाना.
रिश्तों के साथ जीना ही तो जीवन है
अपने पराए का भेद ही तो मृत्यु है
शरीर के मर जाने से मृत्यु कभी नही होती
नजर से मर जाना ही मृत का होना है…
मोहन तिवारी
( मुंबई )