Sad Ghazal -जिंदगी की ही नहीं कोई सहेली है यहां
जिंदगी की ही नहीं कोई सहेली है यहा
जिंदगी की ही नहीं कोई सहेली है यहां
कट रही ये जिंदगी आज़म अकेली है यहां
खा गया हूँ मात उल्फ़त में किसी से मैं यारों
प्यार की इक चाल मैंनें भी तो खेली है यहां
नफ़रतों की ही मिली है चटनी खाने को फ़िर भी
रोज़ रोठी हां मुहब्बत की ही बेली है यहां
याद आया आज वो दिल को बहुत ही मेरे
साथ जिसके गिल्ली डंडा रोज़ खेली है यहां
भेज कोई तो हंसी अब जिंदगी में ही मेरी
गांव में रब जिंदगी मेरी अकेली है यहां
सोच में डूबा हूँ मैं तो रात दिन हल करने में
हां मुहब्बत की नहीं सुलझी पहेली है यहां