क़रीब से ऐसे मेरे निकल रहा है वो | Ghazal
क़रीब से ऐसे मेरे निकल रहा है वो
( Kareeb se aise mere nikal raha hai wo )
क़रीब से ऐसे मेरे निकल रहा है वो
हूँ गैर जैसे आँखों को बदल रहा है वो
उसे भेजा था मुहब्बत वफ़ा भरा कल गुल
उल्फ़त का पैरो लते गुल मसल रहा है वो
मुहब्बत के शब्द बोला नहीं कभी मुझसे
जुबां से ही तल्ख़ लहज़ा उगल रहा है वो
कहने को तो अपना है वो मगर रिश्ते में ही
ख़ुशी से मेरी हर पल खूब जल रहा है वो
निभायेगा क्या दोस्ती वो भला दिल से मुझसे
वफ़ाओ के नाम पे खूब छल रहा है वो
अदावत के बीज लगा है दिलों में बोने ही
नहीं बुरी आदत से अपनी संभल रहा है वो
पुराने दिन भूल गया है सभी अपनें देखो
बड़ा ही दौलत को पाकर उछल रहा है वो
जिसे दी इज्ज़त बहुत ही मुहब्बत से मैंनें
मुझे “आज़म” दुश्मनी से यार मिल रहा है वो
शायर: आज़म नैय्यर
(सहारनपुर )
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