बचपन आंगन में खेला | Kavita bachpan aangan mein khela
बचपन आंगन में खेला
( Bachpan aangan mein khela )
नन्हे नन्हे पाँवों से जब,बचपन आँगन में खेला।
मेरे घर फिर से लगता है,गुड्डे गुड़ियों का मेला।।
खाली शीशी और ढक्कन में, पकवान भी खूब सजें
डिब्बों पीपों में लकड़ी संग, रोज ढोल भी खूब बजें
खिड़की के पीछे जा जाकर, टेर लगाना छिप छिप कर
अब तो रोज पढ़ाई होती, दीवारों पर लिख लिख कर
सुबह शाम और दोपहर में, लगता मिट्टी का रेला।
मेरे घर फिर से लगता है,गुड्डे गुड़ियों का मेला।।
बाजारों की सभी दुकानें, आँगन में है सज जाती
कागज के टुकड़ो से खुशियाँ, पल भर में ही मिल जाती
पल भर में ही गाड़ी उसकी, चंदा तक ले जाती है
पल भर में होली आ जाती, दीवाली मन जाती है
आँगन में आ जाती ट्रेन, आता आँगन में ठेला।
मेरे घर फिर से लगता है,गुड्डे गुड़ियों का मेला।।
कवि : भोले प्रसाद नेमा “चंचल”
हर्रई, छिंदवाड़ा
( मध्य प्रदेश )