भाव जगाने निकला हूँ | Kavita bhav jagane nikla hoon
भाव जगाने निकला हूँ
( Bhav jagane nikla hoon )
बुझे हुए मन के भावों को, पुनः जलाने निकला हूँ।
सुप्त हो चुके हिन्दू मन में, भाव जगाने निकला हूँ।
अपनी काशी अपनी मथुरा,अपनी जो साकेत यहाँ।
बुझी हुई चिंगारी से फिर, अग्नि जलाने निकला हूँ।
जगा सकूँ कुछ हिन्दू मन को,तो मुझको भी तृप्ति मिले।
सत्य सानातन आर्यावर्त में, अलख जागाने निकला हूँ।
कहाँ गयी हिन्दू की शिखाएं, क्यों चोटी को काट दिया।
क्यों जनेऊ की महत्वता की, कुछ हिस्सों मे बाँट दिया।
क्यों मांथे पर तिलक नही क्यों,पगड़ी सिर से छूट गयी।
क्यों वर्ण व्यवस्था तोड़ दिया, जाति पंथ मे बाँट दिया।
वेद ग्रंथ अरू गुरूकुल छूटा, धर्म में विष को डाल दिया।
हिन्दू को हिन्दू से लड़ा कर, कई हिस्सों में बाँट दिया।
मैं आर्यावर्त की सीमाओ, को दर्शाने निकला हूँ।
हिन्दू हूँ हिन्दू के मन मे, रिद्धंम जागाने निकला हूँ।
तक्षशिला गान्धार सहित, सोलह जनपद भी अपने थे।
आर्यवर्त के भारत खण्ड में, स्वर्णिम वैभव अपने थे।
किसने उसको काट दिया, खण्डों खण्डों में बाँट दिया।
हिंगलाज की माँ अम्बे अरु,कटासराज भी अपने थे।
हूंक लिए हुंकार वेदना, को दर्शाने निकला हूँ।
थोड़ा थोड़ा करके ही मैं, भींड बनाने निकला हूँ।
धर्म सनातन पुनः पुरातन,गौरव फिर से प्राप्त करे।
यही सोच हुंकार हृदय ले,हिन्दू को जगाने निकला हूँ।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )
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