भिखारी की भीख | Kavita bhikhari ki bheekh
भिखारी की भीख
( Bhikhari ki bheekh )
एक भिखारी रोज़ गाॅंव जाता,
भीख माॅंगकर घर में वो लाता।
रोज़ाना वह यही काम करता,
काम-धंधा वो कुछ नही करता।।
एक घर में जाता वह रोज़,
जिसमे औरत अकडू थी एक ।
भीख माॅंगता उसे गाली मिलती,
झोले में वह कुछ नही डालती।।
एक दिन जब माॅंगी वो भीख,
मुट्ठी भरकर डाली उसने रेत।
फिर भी खुशी ले गया वह भीख,
झोले में कर दी उसने रेत ही रेत।।
सोचा मन आज दिया है रेत,
कभी ना कभी वही देगी भेट।
उसका था यही प्रण जो एक,
आशीष देता फिर भी वह नेक।।
औरत को जब आया ख़्याल,
रोते-रोते भीग गया रूमाल।
कल दूॅंगी में उसको भरकर धान,
नही करूॅंगी उसको परेशान।।
बार-बार देखे बाहर की और,
भीख माॅंगने आया वो इस और।
झटपट से टब भर लाई औरत,
झोले धान बरसाई औरत।।
करना है तो करो तुम दान,
नही करते तो रखो तुम धान।
उदय कहता सबसे यही एक बात,
गन्दा ना करो किसी का ईमान।।