धवल | Kavita dhawal
धवल
( Dhawal )
हिमगिरी से हिम पिघल पिघल धवल धार बन बहता है
धार धवल मानो हार नवल हिमपति कंठ चमकता है
कल कल बहता सुरसरि जल राग अमर हिय भरता है
दु:ख हारण कुल तारण गंगा का जल अविरल बहता है
धवल चंद्र की रजत चांदनी धरती को करती दीप्तिमान
मानो धरा पर चंद्र फैला रहा उज्ज्वल निज कीर्तिमान
श्वेत अम्बर ओढ़े धरा बैठी झुकाए सिर अति सकुचान
मानो शीत ऋतु में वसुधा चंद्र कौमुदी से कर रही स्नान
धवल धार में नौका विहार हर्षित मन सुख होत अपार
तटनी तट से चलत नाव पकड़त माझी कर से पतवार
चलत हिलत तरी जल में मन आह्लादित होत बहु-बार
जल बीच उछरत मीन देखि प्रिय हिय मे उमड़त प्यार
नट नागर नटि जात बात नहिं मानत जननी की थोरी
दधि माखन नहीं खात रिसियात लै मटकी तब फोरी
ग्वाल बाल संग जाई करे घर घर दधि माखन की चोरी
धवल भयो मुख माखन से देखि हसे गोकुल की छोरी
कवि : रुपेश कुमार यादव ” रूप ”
औराई, भदोही
( उत्तर प्रदेश।)
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