लोग | Kavita Log
लोग
( Log )
टेढ़ा मेढ़ा कटाक्ष,
लिखा फिर भी,
समझें लोग,
सीधा सीधा मर्म,
लिखा ही लिखा,
जरा न समझें लोग।
वक्तव्यों मे अपने,
सुलझे सुलझे,
रहते लोग,
मगर हकीकत मे,
उलझे उलझे,
रहते लोग,
खातिरदारी खूब कराते,
मेहमानी के,
शौकीन लोग,
खातिरदारी जरा न करते,
मेजबानी से,
डरते लोग,
अपना समझें और अपनों का,
गैरों का न,
समझें लोग,
गर गैरों का समझ वो लेते,
उनको अपना,
कहते लोग,
अंध कूप अंतस मे पाले,
वाह्य आवरण
चमकाते लोग,
किस उन्नति को भाग रहे हैं,
राहों मे गिरते,
पड़ते लोग,
दो बोल प्रेम की सुधा को तरसें,
ताउम्र सुधा,
बरसाते लोग,
हर माॅ बाप की यही कहानी,
फिर भी नहीं,
समझते लोग।
रचना: आभा गुप्ता
इंदौर (म.प्र.)