Man ka Dar
Man ka Dar

मन का डर

( Man ka Dar )

 

चलते चलते न जाने कहाँ तक आ गये हैं,
कामयाबी की पहली सीढ़ी शायद पा गये हैं,
कुछ पाने का जूनून आँखों में है बसा हुआ
मगर पहला क़दम रखूं कैसे डर ये सता रहा,

ख़ुद पर इतना यक़ीन कभी किया ही नहीं,
कुछ जीत लेने का मज़ा कभी चखा ही नहीं,
कभी ज़िन्दगी से तो कभी रिश्तों से हारे हैं हम
दुनिया को हराने का नशा कभी किया ही नहीं,

शोर बहुत ही शोर हो रहा है मेरे अंदर अभी,
जज़्बातों का फुट रहा है दिल में ज्वालामुखी,
रब का करम है या किसी की दुआओं का असर,
ठंडी हवा के झोंके ने दस्तक दी मेरे दरिचे पे अभी,

दिल की धड़कनों का बेतहाशा मचलना जारी है,
अजीब सा दीवानापन दिलों दिमाग पे तारी है,
किसी ख़्वाब का सा मंज़र चल रहा आँखों में,
आँखों देखी हक़ीक़त पे भी कैसी ये बेएतबारी है,

मुझे मेरे ख़्याल के क़दमों को चलाना है इस कदर,
ख़ुद पे यक़ीन करके नाचती फिरूं शामों- सहर,
इक डर जो मुझमें समाया है उसे निकाल फेकूं,
सोच के पंख फैलाऊं नाप लूँ अंबर का शहर

Aash Hamd

आश हम्द

पटना ( बिहार )

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