नाकाम | Kavita Nakaam
नाकाम
( Nakaam )
दुनिया की उम्मीदों पर खरा ना उतर सका मैं।
ज़िंदा रहते खुद को मरा ना समझ सका मैं।
अपने कद का अंदाज़ा सदा रहा मुझे।
अफसोस है कि खुद से बड़ा ना बन सका मैं।
एक उनके लिए, और दूसरा अपने लिए
ऐसे दोहरे चरित्र का प्रहसन ना पहन सका मैं।
ईमानदारी का झूठा मुखौटा चढ़ाकर चेहरे पर,
साधु दिखने की खातिर खुद को ना गिरा सका मैं।
मैंने अपनी नाकामी को लिखने की कोशिश की,
पर जीवन को चरित्र की किताब ना बना सका मैं।
मूर्ख बनाकर नेतृत्व करुं, उपदेश दूं, ये नहीं रहा मेरा मकसद कभी।
खुद को चालाक नेता या उपदेशक ना बना सका मैं।
मैं सफेद को सफेद और काले को काला कहने का साहस करता रहा।
लोगों के ओहदे देखकर उनके रुतबे ना बना सका मैं।
नफरत या दुश्मनी को खेल की तरह नहीं खेला कभी।
युद्ध या नरसंहार की वजह खुद को ना बना सका मैं।
अपनी जरूरतों में कटौती करना मेरी अपनी चाहत रही।
अपने प्रयासों से अकेले, दुनिया को खूबसूरत ना बना सका मैं।
मैं मशहूर नहीं हुआ तो दुनिया के काम का ना रहा
कोई मुकाम हासिल ना किया, कुछ खास किये बिना दुनिया से ना जा सका मैं।
शिखा खुराना