वर्जिन सुहागन | Kavita Virgin Suhagan
वर्जिन सुहागन
( Virgin Suhagan )
कब मेरा अस्तित्व,
वेदनाओं, संवेदनाओं,दर्दो ओ ग़म
का अस्तित्व बना
पता ही न चला।
एहसासों के दामन तले
जीते गए
भीतर और भीतर
मेरे समूचे तन ,मन प्राण में,
उपजे मासूम गुलाबों को,
कब हां कब
तुमने कैक्टस में
बदलना शुरू किया,
हमें पता ही न चल पाया।
अहसास तब जागा,
जब इसकी चुभन से,
रूह छलनी लहूलूहान,
होने लगी,
और——
जिस्म से रिसते,
रक्त रंजित
होते हुए भी
खुद से भागते रहे।
और—–
जब कभी पुनः हां पुनः
तुम हौले से ही,
या—— पुनः
जो कुछ सिर्फ थोड़ा सा ही,
ख़ुद को समेटा होता था,
पल में सब बिखर जाता।
रातों की उन,
असहनीय दर्दीली चीखों का,
अपने गले में ही ,गला घोंट देना,
नियति में शामिल हो गया।
जिस्म से मेरे
खेलते वक्त तुमको,
आंखों से बहती अश्रु धार से
कोई सरोकार नहीं रहता।
सिर्फ स्वयं के अपने,
देहासुख की खा़तिर,
और भी ना जाने
मेरे जिस्म से बंधी
कितनी कितनी
सीमाएं तुमने लांघी,
और —– मैं हां——- मैं
कभी भी इस देहरी को,
पार करने की हिम्मत,
भी ना जुटा पाई।
जी करता है हर बंधन,
की सीमा रेखा लांघ लूं।
तोड़ दूं सारे रस्मों रिवाजों को,
और —–
अपने लिए एक
प्रेम के घने वट वृक्ष की,
छांव तलाश करके
जिसकी पनाह में व —-
स्पर्श मात्र से ही,
मैं —- हां —– मैं
पुनः जीवित हो रंगों की,
हकीकत वाली दुनियां
को पा जाऊं।
और——-
अपने तन मन के
वर्जिन सपनों को,
साकार कर लूं।
जो सही मायने में,
अब तक इसलिए
वर्जिन है—–
क्योंकि तुम्हारा
मेरे जिस्म को भेदना,
मेरी रूह को
बिना इजाजत रोंदना है।
और सुनों —–
वर्जिन से अपनी देह को,
सुहागन बनाने के सफर में,
कितना क्या-क्या?
या सब कुछ?
पता नहीं क्या खोकर
क्या पाया?
बस इतना जाना कि
वहीं से वेदनाओं, संवेदनाओं के
के अस्तित्व का जन्म हुआ।
और अब क्या कहूं——
जो अभी शुरू हुआ ही नहीं,
उसे ख़त्म कैसे करूं।
और जो सब कुछ
ख़त्म हो चुका,
उसे कैसे कब तक?
जीवित रखूं।
डॉ. प्रियंका सोनी “प्रीत”
जलगांव
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