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ज़िन्दगी | Kavita Zindagi

ज़िन्दगी

( Zindagi )

 

कभी शोला, कभी शबनम,
कभी मधुर झनकार ज़िदगी।

कभी है तन्हाई का गीत,
न जाने कब आयेंगे मीत,
मिलन जब होगा परम पुनीत,

धन्य जब होंगे नयन अधीर,
लगती है अभिसार जिंदगी।

बगीचे में जो रोपे फूल,
बने फिर आगे चल कर शूल,
नहीं मिलता है कोई कूल,

जिगर के इन टुकड़ों के बीच,
लगती है असिधार ज़िन्दगी।

कभी जीवन में है संघर्ष,
कष्ट दु:ख में भी लगता हर्ष,
पतन में भी उत्थानाकर्ष,

हार जीत दोनों में जीना,
लगती है व्यापार ज़िन्दगी।

छोड़कर चला गया मनमीत,
सुनायें किसको अपना गीत,
घूमने को अब रहा अतीत,

प्रतीक्षा में अपना भी गात,
लगती है दुश्वार ज़िन्दगी।

कभी तुम आओ मेरे पास,
नहीं रह पाओगे उदास,
खुशी के झरने मेरे पास,

करो जी भर भर कर स्नान,
लगती है रसधार ज़िन्दगी।

तज कर सुषुप्ति अब जाग,
छोड़कर सारे राग विराग,
प्रकृति संग खेलें फिर से फाग,

कलरव नर्तन करे सकल ब्रह्मांड,
सबकी है गलहार ज़िन्दगी।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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