खरगोश की खरीददारी
खरगोश की खरीददारी
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लाए बाजार से
शशक दो
रखा नाम काॅटन और स्नो।
व्यय किए रुपए अर्द्ध सहस्र,
बच्चे दोनों से खेलने में हैं व्यस्त।
परेशान किए थे सप्ताह भर से,
रट लगाए थे- पापा ला दो न झट से।
बाजार नहीं है इसका यहां,
भटका सप्ताह भर जहां तहां।
यीष्ट मित्रों को फोन लगाया,
रिश्तेदारों के यहां नजरें दौड़ाया।
कई जगह से निराश हो लौट आया;
अचानक एक मित्र ने एक पता बताया।
सोचा कल संडे है,जाकर देख लूंगा,
मिल जाएगा तो खरीद ही लूंगा।
आज सुबह सवेरे ही निकले घर से ,
पिता पुत्र बड़ी उत्सुकता से!
एक जगह से मिली निराशा,
लगा रखी थी जहां सप्ताह भर से आशा।
पुत्र हुआ निराश,
मैंने कहा- न हो उदास;
हम दोनों कर ही रहे हैं प्रयास।
चलो दो तीन दोस्तों को फोन मिलाते है,
देखो आज वो क्या बताते हैं?
लेकिन नहीं बनी बात,
अब तो मैं भी मन ही मन हो गया निराश!
एक ही जगह से अब बंधी थी उम्मीद-
लिए चल पड़े स्कूटर,कुछ ज्यादा थी स्पीड।
वहां पहुंच कर देखा-
दर्जन भर खरहे पड़े थे पिंजरे में
पूछा क्या रखे हैं विक्रय को?
जवाब मिला हां,
दिल बहुत खुश हुआ!
पुत्र को नहीं था खुशी का ठिकाना,
पूछा देंगे कितने में जोड़ा यह बताना?
मांगा रूपए हजार,
मैंने कहा यह तो बहुत ज्यादा है यार!
कुछ कम कीजिए?
कुछ परिचय अपना उनको दिए;
तब जाकर कुछ कम किए।
छह सौ तक आए,
फिर मैंने पांच सौ का नोट उन्हें थमाए।
कहा रख लीजिए,
ये दोनों एक डब्बे में रख दीजिए।
बेचारे थे नेक इंसान,
ली मेरी बात मान।
उन्होंने डब्बा बेटे को थमाए,
बोले ज्यादा न हिलाए डुलाए;
फिर ख़ुशी ख़ुशी हम दोनों घर लौट आए।
अब जाकर दम लिया,
वरना सप्ताह भर से परेशान था कर दिया।
कुछ इस तरह खरीददारी हुई पूरी,
बिना काव्य रचना के यह कहानी रहती अधूरी!