उठ रही ख़ुशबू फ़ूलों से ख़ूब है | Ghazal
उठ रही ख़ुशबू फ़ूलों से ख़ूब है
( Uth rahi khushboo phoolon se khoob hai )
उठ रही ख़ुशबू फ़ूलों से ख़ूब है
बस रहा कोई सांसों में ख़ूब है
देखते है कर लिए उसपे यकीं
धोखा उसके हर वादों में ख़ूब है
किस तरह मिलनें उसी से मैं जाऊं
हाँ लगा पहरा राहों में ख़ूब है
किस तरह आँखें मिलाऊं प्यार की
गैर पन ही उन आँखों में ख़ूब है
जो कभी मिलता हक़ीक़त में नहीं
आ रहा है वो ख़्वाबों में ख़ूब है
रास्ता कैसे उसके घर का ढूंढ़ू
की अंधेरा ही रातों में ख़ूब है
जो नहीं “आज़म ” हुआ अपना कभी
रोज़ रहता वो यादों में ख़ूब है