Kitab

किताब

( Kitab ) 

 

पन्ने फड़फड़ाते रहे
और हम लिखते रहे किताब जिंदगी की
मगर,सियाही ही खत्म सी होने लगी कलम की
किताब भी रह गई अधूरी की अधूरी ही

शब्दों के मायने बदलते गए
बदलते हुए अपनों की तरह
बह गईं किश्तियां भी उम्मीदों की
रह गए निखालिस टूटते हुए सपनों की तरह

आंगन मे उठती दीवारों मे
झरोखे भी लगाए न जा सके
घर मे लगीं आग भी बुझाते कैसे
तालों की चाभियां विदेश में पड़ी थीं

बढ़ गया चलन स्टेपनी का
काम आने लगीं लेमिनेशन चढ़ी तस्वीरें भी
घी की लौ में अब काजल भी नही बनते
पुतलियों के बीच रंगीन लेंस आ गए

किताब की जगह भी कूड़ेदान का हिस्सा बन गई
किस्से पुराने सारे मर से गए
अब ,ऐसे में लिखना भी क्या पढ़ना भी क्या
हमे ही पता नही की हम
जिंदा भी हैं या हैं मरे हुए

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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