कितना आसाँ है कहना - भूल जाओ

कितना आसाँ है कहना – भूल जाओ | Ghazal

कितना आसाँ है कहना – भूल जाओ

( Kitna aasan hai kehna – bhool jao )

 

इस दिल पे इतनी सी इनायत करना
सुर्ख लबो में अलफ़ाज दबाये रखना
खामोश रही आँखो पे सवालात न करना
चंद रौशनदानो को भी घर में खुला रखना

 

हवा का रुख बदलेगा जमाना जब भी
घर की दीवारो पे इश्क का पहरा रखना
दूर कहीं छिटक जाये कभी आँख से मोती
अँजुली भर हाथ में दरीया का पानी रखना

 

मालूम ,नहीं लौटेगा तू रहगुजर से कभी
खुले आसमानो का सफर जारी रखना
चाँद छुपने लगे जब बदली की ओट में
चूनर जरा काँधे पे कहीं सम्भाले रखना

 

गिरके उठने के हुनर में माहिर हो बहुत
शामो सहर की दुआओं में शामिल रखना
आसमाँ तक ना भरो तमन्ना की उडानें
बहते पानी में ना चांद को देखा करना

 

हम वहीं खड़े हैं जहां से मुड़े थे तुम
उम्मीद ए चराग मुंडेरो पे जलाये रखना
मेहदी भरे हाथो से उड रही जो खुश्बू
बिछी पलको पे पाँव सम्भलकर रखना

 

दिले आईने में सलामत रहे यादे हरदम
बंद मुठ्ठी में खुश्बू जरा हिफाजत से रखना
इतना मुश्किल भी नहीं मुझे छोड़कर जाना
खामोश नजरों में एक तस्वीर सजाये रखना

 

हर आहट पे लगता कि दस्तक तुम्हारी है
यही पैगाम तसव्वुर में खुदसे छुपाए रखना
तुम्हें लगता हालात किसी रोज बदल जाएंगे
तूफानी हवाओं में गिरती दीवारे बचाये रखना

 

क्यों मुस्कुराते हो मेरे हाल पर जमाने वालों
दो चार पत्थर अभी दामन में छुपाए रखना
कितना  आसान  है  कहना – भूल जाओ
मुश्किल मगर अक्स शीशे से हटाये रखना

 

बैचेनी तडप बेकरारी सब बेमानी आज है
बेमुरव्वत  धड़कनो  को उलझाये रखना
मिलेगा करार साँसो को मुमकिन नहीं लगता
रुह को इसी गुलदस्ते में महकाये रखना

 

रात  भारी  है , कटेगी ,था यकीन हमको
सूरज को आँखो में सूकूँ से बसाये रखना
सितारे जमीं पे ना उतरे ना उतरेंगे कभी
दिन के उजालो से दिल बहलाये रखना

 

भोर  सहमी  सी  थी  पर  गुजर  के  रही
तपते सूरज को आगोश में पिघलाये रखना
चाँद  सोने  चला  चाँदनी की तानकर चादर
जिन्दा रहने के लिए ये भम्र भी बनाए रखना

?


डॉ. अलका अरोड़ा
“लेखिका एवं थिएटर आर्टिस्ट”
प्रोफेसर – बी एफ आई टी देहरादून

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