क्या भारत यूरोप का गोदाम था

भावार्थ लेखक – कुमार अहमदाबादी

रुबाई का भावार्थ समझने से पहले कवि अकबर इलाहाबादी के जीवनकाल के बारे में थोडी सी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। अकबर इलाहाबादी का जन्म १६ नवंबर १८४६ के दिन हुआ था।

अवसान १५ फरवरी १९२१ के दिन हुआ था।बालपन में उन्हों ने मुगल साम्राज्य का अंत और अंग्रेजी राज्य का आरंभ देखा। आयु बढ़ने के साथ साथ अंग्रेजी राज्य के चढते सूरज को देखा। जब अवसान हुआ तब भारत में अंग्रेजी राज का सूरज पूरी तरह तप रहा था। इस पृष्ठभूमि को दिमाग में रखकर इस रुबाई को समझने का प्रयास कीजिएगा।

ये बात गलत कि दार-उल-इस्लाम है हिन्द
ये झूठ कि कि मुल्क-ए-लछमन-ओ-राम है हिन्द
हम सब हैं मुती-ओ-खै़र-ख़्वाह-ए-इंग्लिश
यूरोप के लिये बस एक गोदाम है हिन्द
अकबर इलाहाबादी

इस रुबाई में कवि अकबर इलाहाबादी ने भारत को यूरोप का गोदाम कहा है। गोदाम वो होता है जहां नव उत्पादित माल रखा जाता है। शायर ने उस समय खंड में भारत में बढ रहे यूरोपीकरण का मुद्दा व्यक्त किया है। उस समय भारत में अंग्रेजों के साथ साथ कहीं कहीं पोर्टुगीज व फ्रेन्च भी सत्ताधीश थे। उधर यूरोप में औद्योगिक क्रांति के कारण उत्पादन बढ़ गया था।

लगभग सारे यूरोपीयन अपने देश के उत्पादनों को भारत में बेचते थे। भारत में यूरोप में उत्पादित माल के साथ साथ वहां की संस्कृति भी प्रवेश कर रही थी।

भारत में अंग्रेजों की संस्कृति के प्रवेश व असर को वी. शांताराम ने अपनी मूवी नवरंग के आरंभिक दृश्यों में बहुत कुशलता से बताया है। नवरंग के उस दृश्यों में से एक में दो व्यक्ति भारतीय वेशभूषा यानि धोती कुर्ता पहने हुए वस्त्रों की दुकान में जाते हैं। वे जब वापस निकलते हैं; तब टाई सूट व पैंट पहनकर निकलते हैं।

कुल मिलाकर यूरोप द्वारा अपने अच्छे बुरे उत्पादनों के साथ अपनी संस्कृति से भारत के जनमानस को प्रभावित करने के घटना क्रम को कवि अकबर इलाहाबादी ने बेहद खूबसूरती से सिर्फ चार पंक्तियों में व्यक्त कर दिया है।

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पाबंद अगरचे अपनी ख़्वाहिश के रहो
लायल सब्जेक्ट तुम ब्रिटिश के रहो
कानून से फायदा उठाना है अगर
हामी न किसी ख़राब साजिश के रहो
अकबर इलाहाबादी
भावार्थ लेखक – कुमार अहमदाबादी

शायर अकबर इलाहाबादी ने इस रुबाई में सांकेतिक रुप से वर्ग विशेष को दो मुद्दे कहे हैं। एक में अपने लक्ष्य पर नजर केन्द्रित रखने की सलाह दी है। यहां एक बात याद दिलाना चाहता हूँ।

अकबर इलाहाबादी और उन के जैसे कई व्यक्ति सर सैयद की ब्रिटिशरों से सहयोग कर के लाभ लेने की नीति से बहुत प्रभावित थे। संभवतः इसीलिए शायर ने दूसरे मुद्दे में ब्रिटिशरों से वफादारी करने की सलाह दी है; साथ ही साथ ये चेतावनी भी दी है कि कानून से फायदा उठाना है, लाभ लेना है तो किसी भी खराब साज़िश के हामी यानि मत होना। लगता है शायर स्वतंत्रता के आंदोलन को अंग्रेजों के विरुद्ध साज़िश समझते थे।

अब इन सब मुद्दों को उस समय के राजकीय वातावरण के परिप्रेक्ष्य में देखते समझते हैं। अकबर इलाहाबादी ने अपनी जवानी के शिखर पर ब्रिटिश साम्राज्य की बुलंदी देखी थी।

उस समय भारत का एक वर्ग अंग्रेजों से वफादार था। वो अंग्रेजों को खुश कर के उन से जो भी लाभ मिल सके। उसे लेने की रणनीति पर अमल कर रहा था।

लेकिन अंग्रेजों से यानि कानून से लाभ उसी परिस्थिति में मिल सकता था। जब उन से सहयोग की नीति अपनाई जाये। उन के विरुद्ध कोई षड्यंत्र ना रचा जाए ना ही एसे किसी षड्यंत्र में हिस्सा लिया जाए। जिस से अंग्रेजों को किसी प्रकार का कोई नुक्सान हो।एसा करने वाले दोनों हाथों में लड्डू लेकर बैठे थे।

अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र ( जो हमारे दृष्टिकोण से षड्यंत्र ना होकर स्वतंत्रता का आंदोलन था ) सफल होने पर अंग्रेजों से अच्छे संबंध रखने वालों को भी स्वतंत्रता मिलती। लेकिन षड्यंत्र निष्फल होने पर उन्हें किसी प्रकार का नुक्सान नहीं होता; क्यों कि वे कानून के विरुद्ध किये जाने वाले षड्यंत्र यानि स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में शामिल नहीं होते थे।

इतने विष्लेषण के बाद आप खुद समझ जाइये। एक शायर की कलम की ताकत क्या होती है। वो निशाना कहां लगाता है और तीर कहां मारता है।

कुमार अहमदाबादी

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