मन तू क्यूं ना माने ?
मन तू क्यूं ना माने ?
मन तू ,क्यूं ना माने ?
सबको क्यूं , अपना माने ।
सब होते ना ,यहां अपने ।
कुछ होते, हैं बेगाने ।
बनते हैं, बहुत ही अपने ।
दिखाते, नित नए सपने ।
फिर एक दिन, रंग दिखाते ।
उनके नकाब, गिर जाते ।
वो प्रेम ,कहीं खो जाता ।
ढूंढ़े से,नज़र ना आता ।
वो तो बस, एक वहम था ।
उससे ऊपर, उनका अहं था ।
सच जब, यह सामने आता ।
मन, तार तार हो जाता ।
करते जो ,प्रेम दिखावा ।
मन उनसे ,दूर तू रहना ।
खायेगा ,वरना धोखा ।
फिर मुझसे ,कुछ ना कहना ।
मन रे तू , क्यूं ना माने ।
सबको क्यूं , अपना माने ?
श्रीमती प्रगति दत्त
अलीगढ़ उत्तर प्रदेश
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