मानवता ही धर्म हमारा
( Manavta hi dharm hamara )
जहां प्रेम की सरिता बहती, सद्भावो की नव धारा।
मजहब में क्या रखा भाई, मानवता ही धर्म हमारा।
मानवता ही धर्म हमारा
अपनापन दीन ईमान हो, शुभ कर्म कीर्तिमान हो।
मधुर तराने राष्ट्रगान, कड़ी मेहनत स्वाभिमान हो।
पीर हर लें दीन दुखी की, ऐसा हो जाए इक नारा।
घट घट बरसे झड़ी प्रीत की, बहती रहे प्रेम की धारा।
मानवता ही धर्म हमारा
एक रहे हम नेक रहे, मन में समता भाव विवेक रहे।
विविधता में एकता झलके, समरसता अभिषेक रहे।
बंधुत्व भाव में जीए मरे हम, अटूट हो ये भाईचारा।
विश्वास समर्पण पूंजी हो, दमके जग में सुख सितारा।
मानवता ही धर्म हमारा
हिंदू मुस्लिम सिख इसाई, मजहब में क्या रखा भाई।
आपस में हिल मिल समझो, क्या होती है पीर पराई।
हाथ बढ़ाओ जरा मदद को, मिल जाए कोई दुखियारा।
दुख कम हो बांटों जरा, सुख की बहती अविरल धारा।
मानवता ही धर्म हमारा
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )