माता हरती हर संताप
माता हरती हर संताप
देव, ऋषि और पितृ ऋण होते,
जग में ऋण के तीन प्रकार।
इन्हें चुकाना सनातनी का,
होता जन्मसिद्ध अधिकार।
पर इन तीनों से पहले है,
सर्वोपरि माता का ऋण।
इसे चुकाना परमावश्यक,
हो सकते ना कभी उऋण।
माता ने ही जन्म दिया और,
मां ने हमको पाला है।
इसीलिये अनगिन रूपों में,
मां का रूप निराला है।
बेटी, बहन, मां रूप साथ में,
पत्नी रूप भी आला है।
स्त्री शक्ति संग कदम दर कदम,
मिल चलने में उजाला है।
पितृपक्ष के बाद सदा ही,
आते नवरात्रों के दिन।
माता के नौ रूपों का हम,
निशि दिन करते आराधन।
माता तो मां ही होती है,
शिशुवत यदि हम बन जायें।
श्रद्धानत हो करें समर्पण,
सारे सुख जीवन में पायें।
हरती हर संताप मातु,
अभिनव माया ऐसी रचती।
संतानों की सब आशायें,
मनवांछित हो कर फलतीं।
इहलोक संवरता तो है ही,
उस लोक न जाने क्या होगा?
हर हाल कृपा अपनी मां की,
जो भी होगा, अच्छा होगा।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)