मज़हब की दीवारें | Mazhab ki Deewaren
आज दीपावली का त्यौहार है। प्रकृति में हर तरफ़ नव उत्साह एवं दिवाली का परमानंदित प्रकाश फैला हुआ है। यह दिव्य प्रकाश बिजली से जलने वाली लड़ियों एवं दीपों से आ रहा है अथवा लोगों के अंतर से-कह पाना बड़ा कठिन है, क्योंकि दोनों ने अपने-अपने स्वरूप को बिना किसी व्यवधान के एक-दूसरे में बड़ी सहजता से समाहित कर लिया है।
इस झिलमिलाती रात में वैसे तो सबके घर-आंगन जगमगा रहे हैं, परंतु कितने अचरच की बात है कि सामने वाली तंग गली के अंतिम कौने में जो बड़ा सा मकान है उससे ऐसी कोई बात दृष्टिगोचर नहीं हो रही। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि वहाँ एक मुस्लिम परिवार रहता है और इस्लाम में दिवाली का त्यौहार नहीं मनाया जाता। यद्यपि चौबारे पर खड़े दो मासूम बच्चे हमीदा और अख़्तर इस बात को भली-भांति जानते हैं, फिर भी उनके बाल मन की उत्कंठा उन्हें दीपों की स्वर्णिम लौ के प्रति आकर्षित कर रही है।
उनके घर के ठीक सामने, उनके स्कूल के साथी अभिषेक, पंकज व रेखा अपने परिवार के साथ आतिशबाज़ी का आनंद ले रहे हैं। ये कितने अफ़सोस की बात है कि वे सिर्फ चौबारे पर खड़े रहकर उन्हें देख सकते हैं। उनके दोस्तों के पास बर्फी और कुछ अन्य मिठाईयाँ रखी हैं, जिन्हें देखकर अच्छे-अच्छे के मुँह में पानी आ जाए, फिर हमीदा और अख्तर तो अभी बच्चे हैं ! आज से पहले कभी ऐसा अनर्थ ना हुआ था,परंतु आज उन्हें अपने दोस्तों के हिंदू होने से बहुत ईर्ष्या हो रही थी तथा अपने मुस्लिम होने पर अत्याधिक निराशा।
तभी उनकी माँ सविता उन्हें ढूँढ़ती हुई ऊपर आ जाती है,”बच्चों तुम यहाँ थे !…और मैंने तुम्हें ढूँढ़ने के लिए सारा घर छान मारा। अच्छा, अब बहुत ले लिया तुमने पटाखों का लुत्फ़ अब सोने के लिए नीचे चलो !” सविता उन्हें नीचे चलने के लिए कहती है, क्योंकि यह उसकी सास का आदेश था। उसकी सास मुस्लिम होने के साथ-साथ पुराने ख्यालों की भी है। इसलिए वह नहीं चाहती कि उसके पोता-पोती भी हिंदू त्यौहारों को देखें व उनमें दिलचस्पी लें और फिर बड़े होकर उसके बेटे अहमद की तरह दूसरे मज़हम के लड़का या लड़की को अपना जीवन साथी चुन लें।
अपनी माँ की बात को टालते हुए अख़्तर ने प्रश्न किया, “अम्मी-अम्मी हम लोग दिवाली क्यों नहीं बनाते ?” सविता ने उन्हें प्यार से समझाते हुए उत्तर दिया,”बेटा, यह हमारा त्यौहार नहीं है,इसे सिर्फ़ हिंदू धर्म वाले ही मनाते हैं…”
“मगर अम्मी, आप ही तो कहती हैं कि जाति-मज़हब कुछ नहीं होता !” हमीदा ने हैरानी भरे अंदाज में पूछा। सविता अपनी 7 वर्षीय पुत्री के इस विचित्र से प्रश्न को सुन अवाक् रह गई। उससे कोई जवाब देते ना बना। फिर भी उसने अपने बड़े होने का एहसास कराते हुए कहा,”हाँ, कहा था…तो अब मैं ही कहती हूँ- फौरन नीचे चलो !”वह दोनों के बाज़ुओं को कसकर पकड़कर सीढ़ियों की ओर ले जाती है।
“हम नहीं जाएँगे, हम तो यही खड़े रहकर पटाख़ें देखेंगे”-हमीदा और अख़्तर ने विरोध प्रकट करते हुए कहा। “जाओगे कैसे नहीं तुम्हारी तो अम्मा भी जाएगी !”- सविता दोनों को पकड़कर नीचे ले आती है।
नीचे आते ही वे दोनों झूठ-मूठ से रोना शुरू कर देते हैं। “मैं कहती हूँ-बंद करो ये नौटंकी…” सविता अपना गुस्सा दिखाते हुए कहती है, “तुम्हारा रोना सुनकर अम्मा जी उठ गई, तो मेरी वैसे ही सामत आ जानी है !”
अचानक से अख़्तर अपना हाथ छुड़ाकर बाहर जाने का प्रयास करता है, लेकिन तभी सविता गुस्से से अख़्तर के गाल पर एक तमाचा रसीद करती है। जिससे अख़्तर का झूठ-मूठ का रोना हक़ीकत में तब्दील जाता है।
यह सब होता देख पड़ोस की एक औरत बिमला दौड़ी-दौड़ी उनके पास आती हैं,”क्यों क्या हुआ सविता ! बच्चों को ऐसे क्यों मार रही हो ?” बिमला के आते ही सविता थोड़ा शांत हो जाती है,”अब क्या बताऊँ बहन !
ये बच्चे भी पटाखे और मिठाई की ज़िद करते हैं, मैं इन्हें पटाखें दिला भी दूँ, पर तुम तो मेरी सास का स्वभाव जानती ही हो- वो मुझ पर बेवजह बरस पड़ेंगी…” सविता ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा। “कैसा समय आ गया सविता बहन !
तुम एक हिंदू होकर अपने ही बच्चों को दीपावली के इस पवित्र त्यौहार पर पटाखे जलाने से मना कर रही हो !”- बिमला ने थोड़े दुख के साथ कहा। “तुम तो उम्र में बड़ी हो-अपने मन को मार सकती हो,लेकिन बच्चों के मन को मज़हब की दीवारों में कैद नहीं किया जा सकता ! वैसे भी इंसानियत और प्यार से बड़ा कोई धर्म नहीं होता- यही सच है।”
सविता यह सब कुछ सुनकर गहरी सोच में पड़ जाती है। “अच्छा, तुम एक बार इन्हें मेरे साथ भेज तो दो। पंकज के डैडी अहमद भाई को अपने आप समझा देंगे और मेरी सास व तुम्हारी सास की खूब पटती है वे उन्हें अपने आप देख लेंगी। वैसे भी अभी तो वो सो रही हैं जब जागेंगी तब देखेंगे।” बिमला सविता को बड़े प्यार से विश्वास दिलाते हुए कहती है। बिमला अख्तर और हमीदा को अपने साथ ले जाती है। वे भी बड़े चाव से मिठाई खाकर दूसरे बच्चों के साथ पटाखे जलाने लग जाते हैं।
अपनी ड्योढ़ी पर खड़ी सविता बच्चों के मुस्कुराते चेहरों में अपने बचपन की उन खुशियों की तलाश कर रही है जब वह स्वयं दीवाली पर पटाखे तथा फुलझड़ियाँ जलाया करती थी। उसे बहुत दुख है कि वह अपने इस उत्साह को पुनः जिंदा नहीं कर सकती। लेकिन उसे इस बात पर गर्व है कि जिस तरह उसने मज़हब की दीवारों को लांघते हुए अपनी मर्जी से विवाह किया उसी तरह से उसके बच्चे भी धार्मिक संकीर्णताओं को तोड़ते हुए ज़रूर कोई महान कार्य करेंगे।
वह यह सब सोच ही रही थी कि तभी उधर से अहमद आ जाता है, उसके हाथ में एक थैला है। बच्चे दूर से आते अपने पिता को देखते ही सहम जाते हैं,सविता भी दरवाज़े से थोड़ा पीछे हट जाती हैं। परंतु अहमद ने अपने बच्चों के पास जाकर अपने थैले से कुछ पटाखें और मिठाइयाँ का डिब्बा निकाल कर उन्हें दे दिया।और हमीदा व अख्तर को वहीं खेलने को कहा।
अपने पड़ोसियों को दिवाली की मुबारकबाद देता हुआ अहमद अपने घर के अंदर आ गया। सविता जल्दी से अपने घर के अंदर घुस जाती है जैसे उसने कुछ देखा ही नहीं ।
संदीप कटारिया ‘ दीप ‘
(करनाल ,हरियाणा)