मेरी इच्छाओं की राख | Meri Ichchaon ki Raakh
मेरी इच्छाओं की राख
( Meri ichchaon ki raakh )
मैं जिंदगी चाहती थी
जीना
जिंदगी की तरह
जिंदगी जीने के तराशे कई रास्ते
लेकिन सभी बंद थे मेरे लिये
सिवाय एक रास्ते के
जो जाता था उस देश को
जहाँ उड़ान भरती थी
मेरी इच्छाओं की राख
और उसकी आंधियाँ
वहाँ सारा दिन विक्षिप्तों की भांति
दौड़ती-फिरती थी
किन्तु हथेलियाँ रह जाती थी
फिर भी खाली
जब थक जाती थी दौड़ते-दौड़ते
तब स्मरण होता था
बीता कल
अब वहाँ भी घुटन महसूस करती हूं
खोलना चाहती हूं दरीचों को
किन्तु हताशा ही रहती है मेरे साथ
थक जाती हूँ जब-
तब उसकी सलाखों पर पटकती हूँ
सिर अपना
जोर-जोर से पुकारना चाहती हूं
अपनी परछाइयों में खो गए
अक्स को–
लेकिन मेरी आवाज कही
गुम हो गई है
अब मेरी जिंदगी है-बे-रंग
शायद—
यही लिखा है तक़दीर में मेरी
मेरी जिंदगी
मेरा जीवन
जो है निःशब्द
रोते या जागते
निरन्तर।।
डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )